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________________ लगी आग को बुझाने में असमर्थ पाया, तो वे दोनों अपने माता-पिताओं के साथ कुछ अन्य श्रेष्ठीजनों को भी रथ में बिठाकर द्वारिका से बाहर जाने लगे। पर तभी रथ कीलित हो गया। और नगर के दरवाजे स्वतः बंद हो गये। तब अग्निदेव ने केवल श्रीकृष्ण व बलदेव को द्वारिका से बाहर जाने दिया। शेष सभी द्वारिका में ही भस्मीभूत हो गये। श्रीकृष्ण व बलदेव द्वारिका से निकलकर दक्षिण की ओर चले गये। द्वीपायन मुनि का क्रोधभाव बाद में उन्हीं के संहार का कारण बना; ऐसे क्रोध को धिक्कार है। श्रीकृष्ण व बलदेव द्वारिका नगरी से चलकर हस्तबप्र नगरी पहुँच गये। वहां धृतराष्ट्र वंश के अच्छदंत राजा का शासन था। वह नरेश यादवों के छिद्र ढूंढता रहता था। जब बलदेव नगर से भोजन सामग्री लेकर वापिस श्रीकृष्ण के पास लौट रहे थे, तभी राजा के पहरेदारों ने बलदेव को पहचान लिया व इस बात की सूचना राजा तक पहुँचा दी। तब राजा अपनी सेना लेकर श्रीकृष्ण व बलदेव से युद्ध करने पहँच गया। जिसके परिणामस्वरूप श्रीकृष्ण, बलदेव का राजा की सेनाओं के बीच भीषण युद्ध हुआ, पर राजा की सेना उन दोनों योद्धाओं से परास्त हो गई। बाद में श्रीकृष्ण व बलदेव उस नगर से चलकर समीप स्थित विजय नाम के वन मे पहुंचे जहां उन दोनों भाइयों ने भोजन-पानी ग्रहण किया। वे चलते-चलते कौशांबी नाम के भयंकर वन में जा पहुँचे, जहां भीषण गर्मी से वहां के पेड़ जल से गये थे। यहां पहुँचने पर श्रीकृष्ण ने प्यास से व्याकुल होकर अपने बड़े भाई बलदेव से पानी लाने को कहा। बाद में श्रीकृष्ण एक पेड़ के नीचे विश्राम करने लगे। उसी वन में शिकार व्यसन का प्रेमी जरतकुमार शिकार की तलाश में वहां घूम रहा था। यह वही जरतकुमार था, जो नेमिप्रभु की दिव्य वाणी से यह जानकर कि मेरे द्वारा ही श्रीकृष्ण का विनाश होग, गहन कौशांबी के वन में आकर विचरण करने लगा था। यहां जरतकुमार ने दूर से जब आगे की ओर देखा तो उसे कुछ अस्पष्ट सी कोई चीज दिखाई 170 संक्षिप्त जैन महाभारत
SR No.023325
Book TitleSankshipta Jain Mahabharat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrakashchandra Jain
PublisherKeladevi Sumtiprasad Trust
Publication Year2014
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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