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________________ ही ब्राह्मणगण स्वच्छंदता पूर्वक राज्य सुखों का उपभोग किया करते थे। परन्तु अब हमारा भला कौन सम्मान करेगा? यह सुनकर दुर्योधन ने अश्वत्थामा से कहा- मैं तुम्हारे मस्तक पर वीर पट्टक बांध रहा हूँ। तुम फिर युद्ध क्षेत्र में जाकर शत्रु सैन्य का संहार कर सबको यमराज के घर भिजवाने की व्यवस्था कर दो। उधर जरासंध ने भी राजा मधु के मस्तक पर वीर पट्टक बांध कर उसे पांडवों से युद्ध करने भेजा। तब दोनों वीरों ने अति उत्साहित होकर पांडवों की सेना को घेर लिया। तभी अश्वत्थामा ने माहेश्वरी विद्या का स्मरण किया। जब वह विद्या हाथ में त्रिशूल धारण किये हुए आई, तो उसके प्रखर प्रभाव को पांडवों की सेना में कोई सहन नहीं कर सका। समस्त पांडव सेना अस्त-व्यस्त हो गई। अश्वत्थामा ने भी बड़ी संख्या में पांडवों की सेना के हस्ती, अश्वों, रथों एवं पदातिक सैनिकों को नष्ट कर दिया और अंत में पांचाल देश के राजा का मस्तक विच्छिन्न कर दिया एवं उसे दुर्योधन के पास ले गया। पांचाल राजा के मस्तक को देखकर दुर्योधन कुछ संतुष्ट हुआ, फिर वह बोला- क्या संसार में ऐसा कोई शाक्तिशाली नहीं जो पांडवों को निहत कर सके। जब तक क्रूर पांडव जीवित हैं, तब तक अन्य राजाओं के संहार से कोई विशेष लाभ नहीं है। संहार तो पांडवों का होना चाहिए जो समस्त अनर्थ की जड़ हैं। जब पांडवों को पांचाल सेना के नरेश व पांचाल सेना को अश्वत्थामा के द्वारा निहत हो जाने का समाचार मिला, तो उन्हें गंभीर विषाद हुआ। तब श्रीकृष्ण ने कहा कि हमें शोकमग्न होकर समय को व्यर्थ नष्ट नहीं करना चाहिए। यदि पांचाल नरेश परलोक गमन कर गये तो क्या हुआ, हम सभी तो अभी जीवित हैं अभी जरासंध को निहत करना है। हम युद्ध रूपी महासागर को उत्तीर्ण कर तट पर पहुँचने ही वाले हैं। उधर जरासंध व इधर यादवों व पांडवों की सेनायें अपनी-अपनी व्यूह रचनाओं के साथ आमने-सामने थीं। उसी समय आकाश स्थित देवों ने श्रीकृष्ण को संबोधित 148 संक्षिप्त जैन महाभारत
SR No.023325
Book TitleSankshipta Jain Mahabharat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrakashchandra Jain
PublisherKeladevi Sumtiprasad Trust
Publication Year2014
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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