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________________ कारण युद्ध रोक दिया गया व सेनायें अपने-अपने शिविरों में चली गईं। रात्रि में अस्थिर चित्त दुर्योधन पुनः गुरू द्रोणाचार्य के समीप जा पहुँचा व उनसे पुनः शिकायत की कि आप पार्थ को पूर्व में ही अग्रसर होने का मार्ग प्रदान नहीं करते; तो हमारे सैनिकों की ऐसी दुर्गति कदापि नहीं होती। इस पर गुरू द्रोणाचार्य ने उत्तर दिया कि तुम्हारी यह धारणा भ्रांत है। अर्जुन ने तो मुझे अपना गुरू एवं वृद्ध ब्राह्मण समझ कर मेरा वध नहीं किया, अन्यथा अन्य सैनिकों की भांति वह मेरी भी दुर्गति कर डालता। दुराग्रहवश अपने दोषों को अन्य पर आरोपित करने की चेष्टा करना क्या उचित है? तुम भी तो युद्ध के लिए गये थे। फिर पार्थ को तुमने क्यों मार्ग प्रदान किया। अब तुम्हारी जैसी इच्छा हो, वैसा करो। गुरू द्रोणाचार्य के इस उत्तर को सुनकर दुर्योधन विचलित हो उठा व फिर नम्रता पूर्वक बोला-हे गुरूवर, मेरे अपराधों को क्षमा करो। अब अनुग्रह पूर्वक कोई ऐसा उपाय करें, जिससे कि आज रात्रि में ही पांडवों का पूर्ण विनाश हो जावे। कर्ण से भी उसने ऐसा ही परामर्श किया। तत्पश्चात् रात्रि के अंधकार में ही कौरवों की सेना ने पांडवों की निद्रित सेना पर आक्रमण कर दिया। आक्रमण के कोलाहल से पांडवों की सेना की निद्रा भंग हो गई। पांडवों के शस्त्रास्त्र संभालने के पूर्व ही कौरवों ने बाण वर्षा आरंभ कर दी। जिसके फलस्वरूप भील, भीम पुत्र घटक, नकुल, सहदेव, अर्जुन, शिखंडी, दृष्टद्युम्न व श्रीकृष्ण आदि बाण विद्ध हो गये। ऐसी भीषण परिस्थितियों में युधिष्ठिर युद्ध करने के लिए अग्रसर हुए, उन्होंने शीघ्र ही अनेकानेक बाणों से दुर्योधन को विद्ध कर डाला। वह मूर्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा। दुर्योधन की इस दशा को देखकर गुरू द्रोणाचार्य युद्ध करते हुए पांडवों की सेना में प्रवेश कर गये। पांडवों की सेना को बलशाली गुरू द्रोणाचार्य ने अस्त-व्यस्त कर दिया। उसी समय प्रात:काल हो गया। अपनी सेना का यह हाल देखकर घायल अर्जुन आगे बढ़ा संक्षिप्त जैन महाभारत - 141
SR No.023325
Book TitleSankshipta Jain Mahabharat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrakashchandra Jain
PublisherKeladevi Sumtiprasad Trust
Publication Year2014
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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