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________________ कहां जा रहे हो। पहले मुझसे युद्ध करो। तब अर्जुन ने गुरू द्रोणाचार्य से निवेदन किया कि आप पिता तुल्य हैं। क्या यह उचित होगा कि मैं आपसे युद्ध करूं। तब अर्जुन की विनय से प्रभावित होकर गुरू द्रोणाचार्य अन्य दिशा की ओर प्रस्थान कर गये । तब अर्जुन के वाणों से शत्रु सेना संहारित होने लगी । कौरवों की सेना त्रस्त हो उठी एवं सेना में हाहाकर का चीत्कार उठने लगा। तभी अर्जुन के सम्मुख शतायुध युद्ध करने लगा। उसने आते ही शस्त्रास्त्रों के प्रयोग से अर्जुन व श्रीकृष्ण को अग्रसर होने से रोक दिया। यह अर्जुन को असहय लगा। तब अर्जुन ने तीक्ष्ण बाणों के प्रयोग से शतायुध के अश्व, रथ व ध्वजा को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। जब शतायुध के कर के सभी शस्त्रास्त्र नष्ट हो गये, तब उसने मन ही मन दिव्य गदा का स्मरण किया। गदा का स्मरण करते ही वह उसके हाथों में आ गई। तब श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा कि इस प्रकार पग पग पर तुम प्रत्येक वीर से युद्ध करते रहोगे, तो लक्ष्य सिद्ध नहीं होगा; अतः अपने बुद्धि बल से इसका नाश करके मैं अग्रगति का मार्ग प्रशस्त करता हूँ। तब श्रीकृष्ण ने शतायुध से गदा से प्रहार करने को कहा। किन्तु जब शतायुध ने गदा से श्रीकृष्ण पर प्रहार किया तो वह गदा श्रीकृष्ण के पुण्योदय से सुगंधित पुष्पों की एक सुन्दर माला बन गई। कुछ क्षण श्रीकृष्ण के वक्षस्थल की शोभा बढ़ाने के बाद वह गदा पुनः शतायुध के पास आ गई व उसने उसे निष्प्राण कर दिया। शतायुध के मरण के पश्चात् अर्जुन निर्द्वन्द होकर शत्रु सेना का संहार करता हुआ निरंतर अग्रसर होता गया। तभी मध्यान्ह हो जाने पर पार्थ ने श्रीकृष्ण से कहा कि अश्व बहुत तृष्णार्त हैं, अतः पदातिक सैन्य द्वारा अनवरत युद्ध किया जावें। तब अर्जुन ने कहा कि मैं अभी अग्नि देव के दिव्य बाण से क्षण भर में ही चर्तुदिक जलमय प्रदेश स्थापित किये देता हूँ। ऐसा कहकर पार्थ द्वारा दिव्यास्त्र का निक्षेपण करते ही वहां पृथ्वी तल से पवित्र एवं निर्मल जल की 138 ■ संक्षिप्त जैन महाभारत
SR No.023325
Book TitleSankshipta Jain Mahabharat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrakashchandra Jain
PublisherKeladevi Sumtiprasad Trust
Publication Year2014
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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