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________________ सांत्वना दी; किन्तु अपने भाई श्रीकृष्ण व पति अर्जुन को देखकर वह अत्यन्त आर्त स्वर में विलाप करती हुई बोलीक्या मेरे एकमात्र पुत्र अभिमन्यु की रक्षा कोई भी न कर सका। अब मैं भी अभिमन्यु के पास जाऊंगी। मेरे परलोक प्रस्थान की व्यवस्था कर दो। मुझे इतने पराक्रमियों के होते हुए भी नितांत अनाथ की भांति विलाप करना पड़ रहा है। ऐसा कहकर वह बार-बार विक्षिप्त सी हो रही थी। तभी अर्जुन ने प्रतिज्ञा की कि जिस नराधम जयाद्रि ने अन्याय पूर्वक मेरे प्रिय पुत्र अभिमन्यु का हनन किया है; उसको मैं कल अवश्य ही निहत करूंगा। या तो मैं उसका मस्तक विछिन्न कर डालूंगा, अन्यथा स्वयं अग्नि में निक्षेप कर प्राणान्त कर लूंगा। इस तरह के वचन कहकर अर्जुन ने सुभद्रा को धैर्य धारण करने के लिए कहा। श्रीकृष्ण ने भी उससे धैर्य धारण करने का निवेदन किया। जब अर्जुन की इस प्रतिज्ञा का पता जयाद्रि को चला तो वह घबड़ा गया व दुर्योधन के पास गया। गुरु द्रोणाचार्य भी वहीं थे। तब सभी ने उसे धैर्य बंधाते हए कहा कि हम चक्रव्यूह की रचना कर तुम्हें उसमें शरण देंगे। अतः तुम निर्भय होकर युद्ध करो। यदि अर्जुन शाम तक तुम्हें परास्त न कर सका तो वह अग्नि में प्रवेश कर जायेगा। तब तो जीत हमारी ही होगी। उधर अर्जुन वृक्ष के चबूतरे पर कुशासन बिछाकर स्थिरतापूर्वक शासन देवता की आराधना करने लगा। कुछ ही समय बाद शासन देवता प्रकट हो गये व बोले- मझे क्या आज्ञा है। जब श्रीकृष्ण व अर्जुन ने अपनी प्रतिज्ञा के बारे में उसे बतलाया तब वह देवता श्रीकृष्ण व अर्जुन को साथ लेकर एक वापी पर गया व बोला इसमें दो भयंकर विषधर रहते है। उनको पकड़ लाओ। तब शीघ्र ही अर्जुन ने वापी में प्रवेश कर उन्हें पकड़ लिया। तब वह देवता बोला कि इन विषधरों में से एक धनुष व दूसरा वाण के रूप में क्रियाशील होकर अनायास ही आपको विजय श्री दिला देंगे। किन्तु इस बात का ध्यान रखना कि जयाद्रि का 136 - संक्षिप्त जैन महाभारत
SR No.023325
Book TitleSankshipta Jain Mahabharat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrakashchandra Jain
PublisherKeladevi Sumtiprasad Trust
Publication Year2014
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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