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________________ किया है। एक दोहरे में छह पर्याप्ति और दस प्राणोका विवेचन किया हैं। अडिल्ल छंदके चरणमें १०१ प्रकारके मनुष्योकी गिनती लगा दि है। जिसमें १५ कर्मभूमि, ३० अकर्मभूमि और ५६ प्रकारके अंतरद्वीपोके युगलिया मनुष्योंका समावेश है। एक बेजोड छप्पयमें कविवर्यने एक से अठारहतक की संख्याकी कडी जोडते हुए मुक्तिका वरण कौन करता है, उसका उत्तर दे दिया है। जो - एक आत्माका ध्यान करता है, दो बंधन - राग द्वेषको तोडता है, तीन - मन, वचन कायाको वशमें करता है, चार - कपायोंका दमन करता है, छह - काय जीवोकी रक्षा करता है, सात - कुव्यसन टालता है, आट - मद छोडता है, नव - वाड सहित शुद्द ब्रह्मचर्य पालता है, दस प्रकारे यति-धर्म पालता है, ग्यारह प्रकारकी प्रतिमाओंको मानता है, वारह प्रकारे साधु प्रतिमाका आचरण करता है, तेरह क्रियाओंको हटाता है, चौदह प्रकारके जीवोंको जानता है, पंद्रह प्रकारके सिद्धोंका ध्यान करता है, सोलह कषायोंको हरता है, सत्रह प्रकारके संयमका वरण करता है, अठारह पापोसे रहित होता है, वह भव्य जीव मुक्तिका अधिकारी होता है। इस तरहके अनेक छंदामें कविप्रतिभाका उत्कृष्ट दर्शन होता है। ग्रंथराजके अंतिम पद्योमें भरत औरावत क्षेत्रके चौविसी को ध्याते हुए भरत क्षेत्रके वर्तमानकालके २४ तिर्थकरोंको आत्मभावेन वंदना की गई है। तत्पश्चात ६३ पदवीधर अर्थात २४ तिर्थंकर, १२ चक्रवर्ती, ९ बलदेव, ९ वासुदेव, ९ प्रतिवासुदेव इन ६३ श्लाघनीय पुरुषोंको भक्तिभावपूर्वक वंदन किया गया है। साथमें महाविदेह क्षेत्रमें विराजित २० विहरमानोंको अनंत आस्थाके साथ नमन किया है। तत्पश्चात २४ तिर्थंकरोका अंतरालकाल बताते हुए अंतिम तिर्थंकर भ. महावीरके ग्यारह गणधर, तथा उनके पादपर विराजित स्थविर, आचार्य आदि परंपराका संक्षिप्तमें वर्णन करते हुए, वंदन नमस्कार करते हुए अपनी महाकृति देवरचनाको अंतिम मंगल प्रदान किया है। देव, गुरु, धर्मके प्रति यह समर्पणभाव इस ग्रंथराजको कलश चढाता है, पावन तीर्थ बनाता है, सत्यम, शिवम्, सुंदरम् की त्रिवेणीमें अभिस्नान कराता है। कविवर्य श्री हरजसरायजीकृत 'देवरचना' + 33
SR No.023318
Book TitleJain Sahityana Akshar Aradhako
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMalti Shah
PublisherVirtattva Prakashak Mandal
Publication Year2016
Total Pages642
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size15 MB
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