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________________ (८) कामभोगः भवनपति, व्याणव्यन्तर, ज्योतिषी और पहले दुसरे वैमानिक देवलोक तक देविया उत्पन्न होती है इसके आगे सिर्फ देव ही उत्पन्न होते है। देवलोकमें कुछ देविया स्वामीगृहीता है तथा कुछ वेश्याके समान हैं, वे सभी रूपकी निधान है। कामक्रिडाकी विधियोमें प्रविण है। जब देवताओं के मनमें कामविकार पैदा होता है तो कोई देवता अपनी ही देवीके साथ रमण करते हैं तो कोई देवता कुवुद्धिके कारण दुसरे देवताकी देवीके साथ भोग भोगते है और कोई वेश्याक समान देवीके साथ भाग भोगते है। वैक्रिय शरीर का लाभ उठाते हुए विविध प्रकार का रूप वनाकर तरुण देवियोके साथ देवता भोग विलासमें मस्त रहते हैं। इस प्रकार पहले दुसरे देवलोकमें शरीरसे भोग भोगते हैं अर्थात मनुष्यवत सहवास करते है। तीसर चौथमें स्पर्शमात्रसे भोग भोगते है। पाचवे छटमें रूप अवलोकनस तृप्ती हो जाती है। सातवे आटवे में वचनपालनसे तृप्त होते है। नवे से वारहवे देवलोकमें मनमात्रसे मैथुनसेवी होते है। तात्पर्य यह है कि कल्पवासी एकसं बारहवे देवलो' देवताकामवली होते है। इसके आग कल्पातीत तेरहवसे छवासवे देवला' देवताओं को भोगकी इच्छा भी नहीं होती है। वे कामजयी होते है। (९) ऋिद्धिः देवता अपने मनःशक्तिके आधारपर सारे मनवांछित कार्य शिघ्रगतिसे पूर्ण कर लेते है। वे आकाशमें छलांग लगा सकते है, पातालमें प्रवेश पा सकते हैं, तिर्यक गमन कर सकते हैं, पृथ्वी, पहाड, अग्नि, जल, जंगल आदि सर्वत्र विना रुकावटके गमनागमन कर सकते है। दृश्य, अदृश्य दोनो प्रकारकं रूप बना सकते है। देवता अपन मूल शरीरसे मानव जैसी सुरतके होते है। किंतु उत्तर वैक्रियसे नाना रूप वना लत हैं। स्थूल से सूक्ष्म या सूक्ष्मसे स्थूल रुप बनाकर विविध कौतुक किया करते हैं, नाचत है, डरात है, मटकते है अनेक खेल खेलते है। किसी भी देहधारीकं शरीरमें प्रवेश कर सकते है या निर्जिव देहमें प्रवेश कर उस सजीववत् बना सकते हैं। देवता जलमें पत्थरको तेरा सकते है। पर्वतोंको आकाशमें उड़ा सकते हैं। कुछ समयक लिये रात्रीको दिन और दिनको रात्री बना सकते है। सर्दीका गर्मी और गर्मीको सर्दीका मौसम बना सकते है जलके स्थानपर भूमि और भूमिकं स्थानपर जल कर देते है। जलको अग्नि और अग्निको जलमें बदल सकते है। देवता कभी गर्भस्थ शिशुओंका गर्भ परिवर्तन कर देते है यह काम वे इतनी शिघ्रता व कुशलतासे करते है की माता और गर्भको तनिक भी पीडा नहीं होती हैं इसतरह से देवता वहात पराक्रमी, चतुर, ऋिद्धीवान होते हैं। वे संसारके वहोतसे कार्य झटसे सिद्ध कर लेते हैं किंतु उनमें सर्वविरत मुनि अथवा देशविरत श्रावक वननेकी शक्ति नहीं है। व कोई त्याग प्रत्याख्यान नही कर सकते है इसलिये सभी सम्यगदृष्टि देवता मुनिपदको उच्च मानते है उनके चरणोमें झुकते है, खुव भक्ति करते है। कविवर्य श्री हरजसरायजीकृत 'देवरचना' + २७
SR No.023318
Book TitleJain Sahityana Akshar Aradhako
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMalti Shah
PublisherVirtattva Prakashak Mandal
Publication Year2016
Total Pages642
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size15 MB
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