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________________ किया है । नियुक्तियाँ, भाष्य, चूर्णियाँ, टीकाएँ एवं टव्वा आदि की परिभाषा करके एक-एक पर विशेष विश्लेषण करके जिज्ञासुओंकी ज्ञान-पिपासा को तृप्त कराने का साहस सिर्फ आचार्य श्री देवेन्द्रमुनिजी की शाधक्षमता का प्रदर्शन मात्र नहीं परंतु साधना भी है। . जैन आगम साहित्य पर सर्वप्रथम प्राकृत भाषामें जो पद्यवद्ध टीकाएँ लिखी गई वे 'नियुक्तियों' के नाम से विश्रुत है | नियुक्तियों के गम्भीर रहस्योंको प्रकट करने के लिए विस्तार से उनके समान ही प्राकृत भाषा में जो पद्यात्मक व्याख्याएँ लिखी गई वे 'भाष्य' के नाम से प्रसिद्ध है, जैसे कि विशेपावश्यकभाष्य, व्यवहारभाष्य। इन दोनों के पश्चात् जैनाचार्या ने शुद्ध प्राकृत में और संस्कृत मिश्रित प्राकृत में जो गद्यात्मक व्याख्यासाहित्य की रचना की वह चूर्णि 'साहित्य के नाम से विश्रुत हैं । चूर्णि साहित्य में प्राकृत मुख्य और संस्कृत गौण रूप में है । वादमें टीकाएँ आगम, नियुक्तियों और भाष्यों पर संस्कृत भाषा में रची गई हैं । टीका साहित्य के रचनाकार साहित्य, व्याकरण और भापा-विज्ञान के प्रकाण्ड पण्डित थे । यह युग संस्कृत भाषा के उत्कर्प का काल था । आचार्यश्री घासीलालजी महाराज ३२ आगमों पर एक साथ टीका लिखनेवाले सर्वप्रथम आचार्य थे । संस्कृत भाषा जनसाधारण की समझमें न आने के कारणवश जनहित को नजर समक्ष रखकर लोकभाषा प्राकृत का प्रयोग होने लगा । प्राचीन गुजराती अपभ्रंश आदि भाषा प्रयोग में आई । मुनि धर्मसिंहने टव्वा लिखना शुरू किया । तत् पश्चात् अनुवाद यानि भाषांतर का युग प्रारम्भ हुआ जो कि तीन भाषाओंमें हुआ : अंग्रेजी, गुजराती, हिंदी । इनमें क्रमशः डॉ. हर्मन जेकोबी, बेचरदासजी तथा मालवणियाजी और अमोलकऋपि तथा आत्मारामजी आदि सर्वप्रथम उल्लेखनीय हैं । संक्षेप में इस ग्रंथ में अंग, उपांग, मूल, छंद, प्रकीर्णक, नियुक्ति, भाप्य, चूर्णि, संस्कृत टीकाएँ, वालाववोध, तीन भापाओंमें अनुवाद आदि का परिचय दिया है । रुचि विशेपकर बनी रहने से ग्रंथ पटनीय बना है । उनका एक संपादित ग्रंथ 'ल्पसूत्र' है । कल्पसूत्र जैन परंपरा का महान ग्रंथ ही नहीं, इतिहासग्रंथ है । यह भद्रबाहु केवली की रचना है | हिंदी भारत की राष्ट्रभाषा है । जव हिंदी में जैन आगमों के आधुनिक अनुवाद और विवंचन की अत्यन्त आवश्यकता थी तब उन्होंने यह सुंदर संपादन प्रस्तुत किया । उन्होंने हमेशा समय की माँग को पहचाना । आज तक कल्पसूत्र के हिंदी अनुवाद और विवेचन जितने भी मनीपियोंने प्रस्तुत किए हैं उनमें से आ. देवेन्द्रमुनिजी के विवेचन का अपना वैशिष्ट्य है | अन्वेषण और तुलनात्मक दृष्टि से जो श्रमसाध्य संपादन निर्माण हुआ है उसे पढकर मन प्रसन्नता पाता है । अक्षर वडे और स्पष्ट होने से रसता बनी रही दिखाई देती है । संपादन शुद्ध और सुस्पष्ट है । संशोधकों के लिए विपुल सामग्री इसमें उपलब्ध हो सकती है । उनकी प्रस्तावना में ही उनके गाम्भीर्य की झलक दिखाई देती है | उनकी प्रमाण से सिद्ध कृतियाँ ग्रंथ को अधिकाधिक mercipawanterarataजदरमा)
SR No.023318
Book TitleJain Sahityana Akshar Aradhako
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMalti Shah
PublisherVirtattva Prakashak Mandal
Publication Year2016
Total Pages642
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size15 MB
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