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________________ सन् १९९९ को संथारे के साथ अकस्मात उनका स्वर्गवास हो गया । आचार्य सम्राट श्री देवेन्द्रमुनिजी का जीवन सम्पूर्ण मानवता के कल्याण हेतु समर्पित जीवन था । उन्होंने अपने जीवनकाल में लगभग ७० हजार किलोमीटर की पदयात्रा की । करीव ५० हजार से अधिक लोगों को व्यसनमुक्त जीवन के लिए संकल्पवद्ध किया और सेंकडों गाँवों में व संघोमें परस्पर प्रेम, संगटन व सद्भावना के सूत्र जोडे । सम्पूर्ण जीवन मानवजाति के कल्याण के लिए तथा श्रमणसंघ के अभ्युदय के लिए जीनेवाल आचार्यसम्राटश्री देवेन्द्रमुनि साधना की तेजस्विता, जीवन की पावनता, वौद्धिक प्रखरता, चिन्तन की मुखरता, विचारों की उच्चता और व्यवहार की निर्मलता के लिए सदा सदा से अविस्मरणीय रहेंगे । युगपुरुप का जीवन नदी की तरह होता है । नदी जहाँ से भी गुजरती है दोनों किनारों को समृद्धता वक्षती है वैसे ही युगपुरुप भी जहाँ जहाँ विचरते हैं, दुसरों के लिए उपकारक बनते हैं। एसे ही थे आचार्य श्री देवेन्द्रमुनिजी । जैनजगत की विरल-विमल विभूति । देवेन्द्रमुनिजी का साहित्यिक परिचय : श्रुत की सतत समुपासना और निर्दीप निष्काम सहज जीवनशैली यही है श्री दवन्द्रमुनिजी का परिचय | विनय, विवेक और विद्या की त्रिवेणी में सुस्नात पावन जीवन, इन सवका नाम है आचार्यश्री देवेन्द्रमुनि । सबसे महत्त्वपूर्ण घटना घटी थी सन १९५२ में । सादडी में साधु सम्मेलन हुआ। उसमें स्थानकवासी सम्प्रदाय के वाईस से अधिक उपसम्प्रदायों का विलीनीकरण होकर श्रमणसंघ वना । इस श्रमणसंघमें आचार्यश्री आनन्दऋपिजी को प्रधानमंत्री बनाया गया था। उनके कार्यकाल में श्रमणसंघ सुगटित और विकसित हुआ। उन्होंने बडी जागरूकता से कार्य किया । उन्होंने तव आ. देवेन्द्रमुनि को उपाचार्य एवं आचार्य शिवमुनिजी को युवाचार्य घोपित किया । (जो पहले आग लिखा गया है |) आ. देवेन्द्रमुनिने जप को वाणी का तप कहा है | वे निरन्तर ज्ञानसाधना में रत और संयम आराधना में अप्रमत्त रहते थे । उनकी गुरुभक्ति अनन्य थी । वे जीवन में सदा ही आशावादी और पुरुपार्थवादी रहे । व्यवहारकुशलता, वाणी की मधुरता, सदा प्रसन्नता और सहनशीलता यह उनके जीवन के चार स्तंभ माने गये हैं ऐसा अनेक महानुभवोंने कहा है । आगम आदि विविध शास्त्रों का परिशीलन करना, उन पर चिंतन-मनन करना और उनका सार सबके लिए सुलभ करना यह उनकी विशेप रूचि थी । वे दूसरों को उपदेश देने से पहले उसका खुद अमल किया करते थे इसीलिए उनकी वाणी और उनके वर्तन में समानता-एकरूपता दिखाई देती थी । वे स्थानकवासी जैन परंपरा के ही नहीं वे सारे भारतीय संत परम्परा के आदरणीय पुरुप थे । वे लेखक, प्रवचनकार और आचार्य होने के उपरांत महामानव के रूप में वंदनीय, पूजनीय हैं। ૫૮૬ + ૧૯મી અને ૨૦મી સદીના જૈન સાહિત્યનાં અક્ષર-આરાધકો
SR No.023318
Book TitleJain Sahityana Akshar Aradhako
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMalti Shah
PublisherVirtattva Prakashak Mandal
Publication Year2016
Total Pages642
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size15 MB
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