SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 606
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ लिपिज्ञ श्री लक्ष्णणभाई हीरालाल भोजक परम श्रुतोपासक लिपिशास्त्रज्ञ, प्रतिलेखक शिरोमणी विद्वनमंडल, सुपूजित श्री ल. भो. का योगदान शिक्षाजगतमें अविस्मरणीय है, जिनका जीवन ही श्रुतसेवा हेतु समर्पित, त्यागमयी, तपस्यायुक्त मुँह वोलती कहानी थी तथा संतोप, सादगी एवम् संयम की जीती जागती छवि थे। इनकी साधना, लगनशीलता, कार्यशैली प्रशंसनीय थे। निस्पृहभाव से उन्होंने जिन शासनकी जीवनपर्यंत सेवा की थी। यु कहा जाय कि ये भगवती सरस्वतीके एक कुशल उपासक थे। सच ही कहा गया है कि 'गुदहीमें भी लाल छिपे होते है, कीचडमें भी कमल खीले होते हैं L. D. विद्यामंदिर नामक प्रसिद्ध संस्थामें अपना कार्यकाल सत्तर वर्षो से हस्तप्रत, ताडपत्र, ताम्रपत्र, भोजपत्र, शिलापत्र, कर्पटपत्रादि के संरक्षण, संपादन सूचिकरण व अप्रकाशित ग्रंथोके प्रकाशनादि कार्यो में जुड़े रहे थे। ब्राह्मी - खरोष्टि से लेकर आजतक की भारतीय लिपियों का उन्होंने यत्नपूर्वक अध्ययन किया था। लिपिविकास पर वे प्रामाणिकता एवम् अधिकारपूर्वक अपना दृष्टिकोण सर्वदा प्रस्तुत करते थे। अनेक ग्रंथभंडारो की जीर्णशीर्ण पाण्डुलियों का उन्होंने उद्धार किया था। इस प्रकार देशकी अमूल्य निधिको सुरक्षित रखने तथा इस विज्ञान के सतत प्रवाह का सफल प्रयास किया था। आगम प्रभाकर मुनि श्री पुण्यविजयजी म.सा. की पावननिथामें दिमकभक्षित, जर्जरित, धूल-धूसरित, पटन-पाटन रहित, क्षत-विक्षत वाचिनतम हस्तप्रतो को अपनी अथग परिश्रमस सुव्यवस्थित विद्वद-भोग्य बनाया था। इन्होंने जेसलमेर, खंभात आदि ज्ञानभंडारो की श्रुत-संपदा को कालके गलेमें जानेसे बचा लिया था। दसवी सदी से लेकर आजतक के मूलाक्षरों को वर्णमालावद्धकर भ्रामक अक्षरों संकेतो, अशुद्धिसूचक पाटों, पाटान्तरों आदिका संकलन कर उनका परिचय-पत्र सरलतम ढंगसे तैयार कर एक दुरूह कार्यको हल किया था। ला. द. से शोधछात्र, विशिष्ट विद्वान, साधुसंत तथा देशविदेश के विद्वान बडी संख्या लाभान्वित हुए थे। आचार्य कैलाससागरजी म.सा.के कोवा ज्ञानमंदिर के प्राचीनतम हस्तप्रतों व ताडपत्रों की कटिन लिपि को सरल प्रक्रियासे दिनरात के परिश्रमसे पूर्ण कर विभागीय पंडितो का वोध कराया था। अहमदावाद की L. D. विद्यामंदिर में प्राचिनलिपि शिक्षा के जिज्ञासुओं को बहुत ही सहज ढंगसे लिपि के मरोड व कालान्तरमें लिपि के विभिन्न स्वरूपों की जानकारी दी थी। इसी तरह अपने ऋपि-मुनियों की विरासत भगवान की अमृत वाणी व सरस्वती के अपार खजाने को लोगो के वीच प्रस्तुत कर एक अदभुत कार्य कीया है। ऐसे तपस्वीके हम सव आजीवन ऋणी है। हम सब तनमनसे इनके कार्यकी भूरी भूरी अनुमोदना करते हैं। हमारा प्रयास होगा कि इनके धरोहर, સુજ્ઞશ્રી લક્ષ્મણભાઈ ભોજક + પપ૭
SR No.023318
Book TitleJain Sahityana Akshar Aradhako
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMalti Shah
PublisherVirtattva Prakashak Mandal
Publication Year2016
Total Pages642
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy