SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 574
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ क्रम के विषय में संशोधन करके युक्तिसंगत तर्क द्वारा स्थापित किया है कि सबसे उपर वाला पहला छत्र सबसे छोटा, वीच वाला उससे थोडा बडा और सबसे नीचे भगवान के मस्तक के समीप वाला सबसे बडा होना चाहिये । वुद्धिशाली, विचारशील और संशोधनात्मक प्रवृत्ति से उद्भूत सत्य को स्वीकार करने की वृत्ति रखने वाले आचार्यो एवं विद्वानों ने इसका स्वीकार और समर्थन किया है | तपागच्छ के सबसे विशाल साधु-साध्वी समुदाय के तत्कालीन प्रभावक गच्छाधिपति प.पू. आ. भगवंत श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराज साहेब जो आगम के सिद्धांतों का निष्ठापूर्वक स्वयं पालन करते और शिष्यों से भी अनुसरण करने का आग्रह रखते वे भी आ. श्री के संशोधन से प्रभावित हुए । उन्होने पत्रोत्तर में लिखा कि उनके संशोधन कार्यका दो वार वारीकि से निरीक्षण किया है और आ. श्री के निष्कर्ष को उनकी पूर्ण सहमति है । अपने सभी संघो में छत्रों को यही रूप से दर्शाने का निर्देश भी तुरंत दे दिया । आ. श्री उनके पत्र को प्राप्त करने के बाद अत्यंत आनंद में आ गये और बोल उठे कि महापुरुषों की कैसी उदारता है कि मेरे जैसे अल्प वय के साधु की बात भी इतनी सरलता से स्वीकार कर ली । सत्य समझने के बाद उसे तुरंत स्वीकार कर लेने का गुण उनमें रहता ही है । अशोक वृक्ष आसोपालव चैत्यवृक्ष : - - आ. श्री ने संशोधन से ये प्रमाणित किया कि ये तीनो भिन्न-भिन्न है | विशेष वर्णन पुस्तक से जाना जा सकता है । तीर्थंकर देव की केश मीमांसा : इसमें तीर्थंकर देव की दीक्षा के पश्चात् केवलज्ञान तक एवं तत्पश्चात् निर्वाण तक केश-नख वृद्धि के वारे में शास्त्रों के आलोक में सुंदर विवेचन किया है । सिद्धिदायक सिद्धचक्र यंत्र : सिद्धचक्र यंत्र की आराधना विपुल प्रमाण में होती है । इसलिये आ. श्रीने विशेष परिश्रम लेकर आगमसम्मत संपूर्ण रूप से शुद्ध यंत्र - पूजन-विधान का आलेखन किया है । नव-नव दिन की वर्ष में दो वार शाश्वती ओली की आराधना का केन्द्रबिंदु सिद्धचक्र यंत्र विशेष फलदायी बने इसके लिये आ. श्रीका यह अत्यंत महत्त्वपूर्ण योगदान है । इस साहित्यिक कृति की आचार्य श्री ने सभी दृष्टिबिंदुओं को स्पर्श करती हुई विस्तृत प्रस्तावना लिखी है । आयंबिल तप और भोजन व्यवस्था, आयंबिल तप से होने वाले लाभ, आराधनामय जीवन जीने के अवसर का पूरा लाभ उठाने की प्रेरणा दी है । साहित्य कलारत्न श्री विजय यशोदेवसूरि + ५२५
SR No.023318
Book TitleJain Sahityana Akshar Aradhako
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMalti Shah
PublisherVirtattva Prakashak Mandal
Publication Year2016
Total Pages642
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy