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________________ करना चाहूँगी । हम सब जानते हैं कि प्रतिक्रमण एक आवश्यक क्रिया है और लगभग प्रत्येक जैन व्यक्ति वर्ष में एक बार तो प्रतिक्रमण अवश्य करता है । क्रिया के साथ तादात्म्य साधने के लिये अर्थरहस्य का ज्ञान हो तो क्रिया में यथार्थ आनंद की अनुभूति होती है और क्रिया विशेष फलदायी बनती है। वि.सं. २००७में मुनि अवस्था में पर्युपण पर्व पर लोगों को जिज्ञासा और उत्साह देखकर इस पुस्तक का निर्माण ..... प्रतिक्रमण क्या है | उसके साधन क्या है ? प्रतिक्रमण शब्द का अर्थ क्या है ? प्रभाव का अर्थ क्या है ?, क्या प्रतिक्रमण प्रतिदिन करना चाहिये ? क्या आवश्यक एक ही है ? संवत्सरी प्रतिक्रमण क्यों करना चाहिये ? क्रिया की आवश्यकता क्या है ? आदि कई प्रश्नों का विशद विवेचन किया है | इस पुस्तक की कुछ विशेषताओं का उल्लेख करना चाहूंगी । (१) महत्त्व के सूत्रों का आवश्यक भावार्थ और उसकी विशेप समझ सूत्रों के पहले ही दे दिये गये हैं । (२) जिस क्रिया में जैसा आसन और मुद्रा अपेक्षित है उसके चित्र दिये गये है। (३) मुहपत्ती के ५० वोल के चित्र दिये गये हैं । 'अभिधान राजेन्द्र' नामक कोश जैनसमुदाय में एक महान कांश के रूप में विख्यात है पर अनुपलब्ध था | प्रख्यात विद्वान प.पू. आचार्य श्री विजय जयंतसेनसूरिजी की प्रेरणा से कोश पुनः प्रकट करने का उपक्रम किया गया । उसका सरलता से उपयोग किया जा सके इसलिये उसका कद घटाकर आधा किया गया। तत्समय के विख्यात विद्वान अगरचंदजी नाहटा ने मुनिश्री यशोविजयजी से उनके अभिप्राय के लिये आग्रहपूर्वक विनती की । मुनिश्री ने इस कोश के लिये ऐसा उच्चकोटि का अर्थ, सार्थ, सर्वग्राही मूल्यांकन किया कि अन्य अनेक अभिप्रायों के बीच मुनिश्री के अभिप्राय को चुन करके ग्रंथ के सभी भागों में प्रसिद्धि दी गई। तीर्थंकर भगवान श्री महावीर के ३५ चित्रों का संपुट : वि.सं. २०२९ सन् १९७३ में प्रथम प्रकाशित इस ग्रंथ में ३४ चित्र श्री महावीर के जीवन को आलखित करते हैं और ३५वाँ चित्र भगवान के आद्य शिष्य गणधर श्री गौतमस्वामीजी का है। इसकी सन् १९९२ की तीसरी आवृत्ति में १३ अतिरिक्त चित्रों का समावेश किया गया है | सभी चित्र आयात किये गये आर्ट पेपर पर छापे गये हैं जो बहुत ही आल्हाद दायक हैं। इसमें १४४ प्रतीकों और ८० रखापट्टियों का समावेश किया है और तीन भाषाओं में परिचय दिया गया है जो अभुतपूर्व जानकारी देता है । इसके अलावा इसमें सिद्धचक्रयन्त्र, ऋपिमण्डल यंत्र, भाविकाल में तीर्थंकर वनने वाला आत्मा परमात्मा कैसे बनता है उसका विवेचन, चौदह राजुलोक के भौगोलिक चार चित्र, पाप क्षमापना सूत्र - अटारह पाप स्थानक, जैनागमों की ब्राह्मी साहित्य कलारत्न श्री विजय यशोदेवसूरि + ५२३
SR No.023318
Book TitleJain Sahityana Akshar Aradhako
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMalti Shah
PublisherVirtattva Prakashak Mandal
Publication Year2016
Total Pages642
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size15 MB
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