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________________ और अपरन्हि ११ से ५ बजे तक जैनेन्द्र प्रक्रिया (संस्कृत व्याकरण), राजवार्तिक, गद्यचिंतामणि, अष्टसहस्री, गोम्मटसार जीवकांड, कर्मकांड, प्रमेय रत्नमाला, आप्त परीक्षा आदि क्लिष्टतम ग्रंथो को अकेली पढाती थी। महाविद्यालयों में तो एक-एक विषय को मात्र ४५.४५ मिनट पढाने के लिये भी विद्वान अलग-अलग रखने पडते हैं। संस्कृत स्तुतियों की शृंखला में 'उपसर्ग विजयी पार्श्वनाथ', 'श्री पार्श्वनाथ स्तुति', 'सुप्रभात स्तोत्र', 'मंगल स्तुति', 'जम्बूद्वीपभक्ति', 'चतुर्विंशति जिन स्तोत्र', 'श्री तीर्थंकर स्तुति', 'श्री महावीर स्तवनम्', 'सुदर्शन मेरु भक्ति', 'निरंजन स्तुति' आदि कई रचनायें बनाई। कल्याणकल्पतरु स्तोत्र (अपरनाम छंदोमंजरी) __प.पू. माताजी की विभिन्न मौलिक रचनाओं में से एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण रचना है 'ल्याण कल्पतरु स्तोत्र' जिसे उन्होने वी. सं. २५०१ (सन् १९७५) में छंदवद्ध किया। इसकी अपनी कुछ विशेषता है जिससे मैं आपको अवगत कराना चाहूँगा। संस्कृत छंदशास्त्र में एक अक्षरी छंद से लेकर ३० अक्षरों तक के छंदो का वर्णन आता है। प.पू. माताजी ने इस स्तोत्र में एकअक्षरी छंद से लेकर ३० अक्षरी छंदो का क्रम से प्रयोग करते हुए कुछ १४४ छंदो में भगवान ऋपभदेव से लेकर महावीर स्वामी पर्यंत २४ तीर्थंकरों की पृथक-पृथक स्तुतियाँ बनाई और अंत में एक 'चतुर्विंशति तीर्थंकर स्तोत्र' नाम के समुच्चय स्तोत्र की रचना की। इस प्रकार पूरे 'कल्याणकल्पतरू' स्तोत्र में २१२ श्लोक हैं। प्रत्येक तीर्थंकर की पंचकल्याणक तिथियाँ, उनके शरीर के वर्ण, आयु, कल्याणक-स्थल आदि का पूरा इतिहास इसमें समाहित कर लिया गया है। इसमें वार्णिक, मात्रिक, सम, विपम और दण्डक इन पाँच प्रकार के छंदो का प्रयोग है। इसकी एक स्वतंत्र पुस्तक प्रकाशित हुई है जिसमें इतना ज्ञान समाविष्ट है कि यह एक छंदशास्त्र बन गया है। इस पुस्तक के अंत में संस्कृत का 'एकाक्षरी कोप' भी समाविष्ट है जो इस पुस्तक की उपयोगिता वृद्धिंगत करता है। 'श्री त्रिंशत् चतुर्विंशति नाम स्तवनम्' प.पू. माताजी की १३० श्लोकों के विस्तारित इस विशिष्ट रचना के बारे में बताना चाहूँगा कि इसमें सहस्रनाम स्तोत्र की तरह ही प्रथम १० श्लोकों में पीटिका है। फिर अनुष्टुप छंद में निवद्ध १० अधिकार हैं। प्रत्येक अधिकार में एक-एक क्षेत्र संबंधी त्रैकालिक चौवीसी के ७२ तीर्थंकरों के नाम हैं। अंत में प्रार्थना के अष्ट श्लोकों में पंचकल्याणकों से युक्त तीर्थंकर-पद प्राप्ति के उत्कृष्ट भाव प्रकट किये हैं। प्रशस्ति के ३ श्लोकों में स्तोत्र रचनासाल वी. सं. २५०३ माघशुक्ला चतुर्दशी तिथि को गूंथ लिया है। साहित्य-साम्राज्ञी प. पू. ज्ञानमती माताजी + २६५
SR No.023318
Book TitleJain Sahityana Akshar Aradhako
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMalti Shah
PublisherVirtattva Prakashak Mandal
Publication Year2016
Total Pages642
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size15 MB
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