SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 311
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रमुखता देते हुए निर्दोष आर्यिकाचर्या में निमग्न रहने में ही अपना लक्ष्य रखती है। विद्वानों को भाषा में प. पू. माताजी की प्रमुख पहचान निम्न शब्दों में की जाती है. 'ज्ञानमती माताजी तेरी यही निशानी । एक हाथ में पिच्छी, दूजी में जिनवाणी ॥ प. पू. माताजी का संक्षिप्त जीवन-परिचय शरद पूर्णिमा वीर नि. सं. २४६० (सन् १९३४ ) में जन्मी 'मैना' नामकरन पाने वाली इस बालिका ने यौवन की दहलीज समान १८ वर्ष की अल्पायु मे शरद पूर्णिमा के दिन ही पारिवारिक कडे विरोध का सामना करते हुए 'आजन्म ब्रह्मचर्यव्रत' रुप सप्तम प्रतिमाको धारण किया एवं १९ वर्ष की आयु में दीक्षा लेकर 'क्षुल्लिका वीरमती' बनी तथा २२ वर्ष की आयुमें आर्यिका दीक्षा ग्रहण करके 'ज्ञानमती' नाम पाया । इस तरह प. पू. माताजी वीसवीं सदी के प्रथम दिगंबराचार्य 'चारित्र - चक्रवर्ती' श्री शांतिसागरजी महाराज से अनुभव-ज्ञान एवं शुभाशीर्वाद प्राप्त करने वाली एवं उन्हीं के पट्टशिष्य ' चारित्र - चूडामणि आ. श्री वीरसागरजी महाराज की बीसवीं सदी के प्रथम वालब्रह्मचारिणी सुशिष्या वनी । ज्ञानार्जन - ज्ञानसाधना: प. पू. माताजी के ज्ञान-प्राप्ति की नींव बनी जैनागम का तलस्पर्शी अध्ययन • एवं संघस्थ त्यागियों को अध्ययन कराने की क्षमता एवं उत्साह । गोम्मटसार, परीक्षामुख, न्याय- दीपिका, प्रमेय कलामार्तण्ड, अष्ट सहस्री, तत्त्वार्थ राजवार्तिक, सर्वार्थसिद्धि, अनागार धर्मामृत, मूलाचार, त्रिलोकसार आदि अनेक ग्रन्थी का अध्ययन-अध्यापन करके अल्पसमय में ही विपुल ज्ञानार्जन कर लिया। हिंदी, संस्कृत, प्राकृत, कन्नड, मराठी आदि भाषाओं पर आपका यथोचित अधिकार हो गया। 'कातंत्र व्याकरण' पर प.पू. माताजीने केवल दो महिनों में अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया तो तत्कालीन व्याकरण पढाने वाले पण्डित-गण उनकी असाधारण स्मरणशक्ति एवं प्रतिभा से अत्यंत आनंदित हो गये। उस समय प.पू. माताजी की आयु केवल २० वर्ष थी। 'कातंत्र रुपमाला' बीज से प. पू. माताजी की ज्ञान-साधना रुप वृक्ष प्रस्फुटित हुआ और उस पर जो पत्ते, फूल और फल लगे उन्होंने समस्त ज्ञान-पिपासुओं को मुग्ध कर दिया । साहित्य साधनाः बहुमुखी प्रतिभाकी धनी प. पू. माताजी के केवल साहित्य - सर्जन पहलू को ही इस निबंध में समाविष्ट किया है। यथा-नाम तथा गुण धारण करने वाली प. पू. ૨૬૨ - ૧૯મી અને ૨૦મી સદીના જૈન સાહિત્યનાં અક્ષર-આરાધકો
SR No.023318
Book TitleJain Sahityana Akshar Aradhako
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMalti Shah
PublisherVirtattva Prakashak Mandal
Publication Year2016
Total Pages642
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy