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________________ संगीत और वाद्यंतरः आचार्य विजयवल्लभ स्वयं उच्चकोटि के संगीतज्ञ, कवि और गायक थे। संगीत के माध्यम से ही मनुष्य अपने इष्ट देव के अधिक से अधिक समीप पहुंच सकता है। लय, सुर, ताल तथा राग रागनियों में जब वे अपने प्रभु को रिझाते थे, तो भावविभोर हो जाते थे। इसी भावानुभूति में उनके अन्तर का कवि भगवान् से साक्षात्कार होते ही मुखरित हो पडा - • मेरी अरजी प्रभुजी स्वीकार करो, भव भव की तो फेरी दूर करो, प्रभु शरण आए की बाहं फरो। • सरणा तो ले चुका हूं, चाहे तारो या न तारो। * नजर टुक मेहर की करके दिखा दोगे तो क्या होगा। * ज्ञाता के आगे अधिक क्या कहना, आखिर पार लगाना होगा। संगीत के वाद्यतरों के बारे में भी उन्हें पर्याप्त ज्ञान था। दुंदुभी, ढोल, दमामा, वीणा, वेणु, नाद, तबला तथा झल्लरी आदि के साथ-साथ सात स्वर व तीन ग्राम (कुल इक्कीस) के आलाप वे लेते थे। गीत, नृत्य व ध्वनियों के पद - त्रौं त्रौं त्रिक त्रिक वीणा बाजे, धौ धौ धप मप धुन ढक्कारी, दगड दउं दगड दउं दुंदुभि गाजे, ता थेइ जय जयकारी। त्रिशला अपने लाल को झुला रही है - छननन छननन धुंधरु बाजे, मोती झालर झलकाई इक्कीस प्रकारी पूजा में - • झण झण रणके ने उरा, घुघरियां छनकंत। • धौ धौं धपधपमप, मादल झंकार बजेवा ___ौं त्रौं त्रिकत्रिक वीना बाजे, इन्द्राणी नाचे शिव सुख लेवा। देश विभाजन और गुजरांवाला से प्रस्थानः देश को आजादी मिली १५ अगस्त १९४७ को। आचार्य विजयवल्लभसूरिजी उस समय गुजरांवाला में थे। यह समय ऐसा था जब चारों ओर मारकाट आगजनी, बम और गोली चल रहे थे। गुजरांवाला में भी हालात ऐसे ही थे। एक दिन बम का एक गोला उपाश्रय में भी फेंका गया। गुरूदेव बाल-बाल बच गए। एक कोने में धुंआ सा छोड कर बम शांत हो गया। गुजरात व पूरे भारत से जैन मुख्याओं, आचार्यो और श्री संघों की तरफ से भारत सरकार पर दबाव बन रहा था कि गुरू महाराज को सुरक्षित भारत लाया ૮૪ + ૧લ્મી અને ૨૦મી સદીના જૈન સાહિત્યનાં અક્ષર-આરાધકો
SR No.023318
Book TitleJain Sahityana Akshar Aradhako
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMalti Shah
PublisherVirtattva Prakashak Mandal
Publication Year2016
Total Pages642
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size15 MB
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