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________________ काव्यों में किए है। बसंत राग (होई आनंद बहार रे प्रभु बैठे मगन में) भैरवी - ( प्रभु दर्शन भव ताप हरण); श्री राग ( कुंथुजिन पूजा शिव तरू कंद); जयजयवंती (सूरपद पूजे भाव, अजर अमर पावे); कलिंगडा - (अरचुं मैं पारस जिनंद चरनं); मालकोश - (प्रभु पार्श्वनाथ मुझ पकारो हाथ); ध्रुपद - (पार दूध परमातम परमेश्वर परमानंद, कंद नंदा नंद नंदा, नंदन श्री जिंनद ) अपने परम गुरू श्री आत्मारामजी के स्वर्गस्थ हो जाने पर तो वे सचमुच बिलख पडे थे — हे जी तुम सुनियो जी आत्तमाराम सेवक सार लीओ जी । दिन दिन कहते ज्ञान पढाउं, चुप रहे तुम को लड्डु दिलाउं, जैसे मात बालक पितयावे, तिम तुम काहे न कीजो जी | विजयवल्लभ की कविताएँ 'अनुभव सहज स्वभाव' पर आधारित थीं । पूजाओं के प्रारम्भिक दोहों में 'सिमरी सारद माय' कह कर माता सरस्वती देवी को प्रणाम करते हैं। मानव को 'बंदे प्रभु कर ले सहाई रे' कह कर उसे 'मन शुद्ध साफ कर अपनी बात' का आह्वान किया तथा 'भवि जाग तू गई रात रे, कहकर हर समय मनुष्य के 'स्व' को उपर उठाने का प्रयत्न किया। अपने अन्तर को पहचानने के लिए मनुष्य को 'आतमराम रमापति रे कहा। यह ठीक है कि 'करम मरम कोई विरला पावे किंतु मनुष्य के आत्मविश्वास को जगाने के लिए आतम लक्ष्मी निज गुण प्रगटे, वल्लभ हर्ष मनाना तथा वंदन फल हो आतमरूप पाउं अथवा आतम गुण समकित सार जगत् में मानो कहकर आत्मा के सहज गुणों के विकास पर वल दिया है। उन्होंने भगवान से केवल 'निजातम संपदा' मांगी तथा 'समकित आतम गुण प्रगटाना की प्रार्थना की। उन का मनन व चिंतन 'आतम अनुभव सिद्ध' एक बार तो प्रभु से मांग ही वैटे 'आत्म लक्ष्मी आपकी प्रभु है वो मुझको दीजिए।' काव्य रचनाओं की ईमानदारी विजयवल्लभ के काव्य में समाज सुधार, चरित्र निर्माण, एकता, भक्ति व पांडित्य की स्पष्ट झलक मिलती है। काव्य में उन की सत्यता, निर्भीकता और ईमानदारी उनके चरित्र की बुलंदी की परिचायक है। परम गुरू आत्मारामजी का स्वर्गवास विक्रम संवत १९५३ में हुआ और सनख़तरा में अगले ही साल (संवत १९५४ में) अपने परम गुरू आत्माराम की संपूर्ण जीवनी उन्होंने सात ढालों (सात स्तवनों) में लिखते हुओ, 'वहां के श्रावक लाला गोपीनाथ, लाला अनंतराम, लाला प्रेमचन्द की प्रेरणा का उल्लेख किया है।' गुजराती भाषा में पंडितवर्य मुनि श्री वीर विजयजी की रचित पूजाएं उनसे ५०-६० वर्ष पहले से प्रचलित थीं । विजयवल्लभ की कई पूजाओं में श्री वीरविजय की कृतियों का आधार उन्होंने लिया है, यथा द्वादश व्रत पूजा में 'विजय शुभ वीर अनुसारी, करी रचना मनोहारी' इसी ૮૨ + ૧૯મી અને ૨૦મી સદીના જૈન સાહિત્યનાં અક્ષર-આરાધકો -
SR No.023318
Book TitleJain Sahityana Akshar Aradhako
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMalti Shah
PublisherVirtattva Prakashak Mandal
Publication Year2016
Total Pages642
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size15 MB
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