SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 120
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ व पुरजोर तरीके से अपना पक्ष समझाया। विक्रम संवत १९४४ में राधनपुर के श्री संघ की वही किताब में श्री विजयानंदसूरिजी का हस्ताक्षरित, श्री संघ का निर्णय कि 'स्वप्नों की बोली की आय साधारण में ही ली जाएगी का हवाला देकर उन्होंने बताया कि पंजाब में पाठशालाएँ, स्कूल और ज्ञानशालाओं के लिए धन की जरूरत सिर्फ इसी आय से ही पूर्ण हो सकती है। अतः यह राशी साधारण खाता में ही रहनी चाहिए। उनकी दलीलें व वक्तव्य इतना वजनदार था कि अन्य किसी ने भी इसका विरोध न किया । विजयवल्लभ ने तीज त्योहारों को भी सुसंस्कृत रूप से मनाने का उपदेश दिया। होली के लिए - * ज्ञान रंग समता पिचकारी, छाँटो समता नार रे आतम लक्ष्मी होरी खेली, वल्लभ हर्ष अपार रे * पास गौडी के दरबार आज खेलिये होरी, घूर उडाना गारी गाना, नहीं सज्जन आचार रे अनेकांत : भगवान महावीर द्वारा प्रतिपादित अनेकांत के सिद्धांत को विजयवल्लभ ने भी वैचारिक हिंसा को मिटाने के लिए एक अमोघ अस्त्र माना । भिन्नता में अभिन्नता का दिग्दर्शन करना ही अनेकांत का लक्ष्य है। 'ही' और 'भी' का मौलिक अंतर न समझाने वालों के लिए उन्होंने कहा.... अंधा और लुला दो मिलकर पहुँचे इच्छित स्थान, दोनों ही जुदे एकाँ | निश्चय और व्यवहार के मूल में हमेशा ही कुछ फर्क सा रहता है। 'नय' दृष्टि से वस्तु के स्वरूप को समझ लें तो समस्त भेदभाव भूल जाएंगे। * बिना समझे वचन नय के, खींचते हैं सभी अपनी, अगर नयवाद को समझें, नहीं कुछ भेद भारी है। * कथंचित नित्य चेतन है, अनित्य भी है अपेक्षा से द्रव्य पर्याय नय मानें, जिन्हें प्रभु आज्ञा प्यारी है ॥ पर्यायवरण: अपने काव्यो में विजयवल्लभने बताया है कि अहिंसा से जैविक और वनस्पतिक संपदा का संरक्षण होता है और अपरिग्रह से साधनों का सीमित और विवेकपूर्ण दोहण होता है। पर्यावरण की शुद्धि में वृक्षों का महत्त्वपूर्ण साथ है। उनके काव्य में अशोक, रायण, नंदी, साल, कादम्बरी-अटवी, कमल शोभित सरोवर, फूलों-फलों की सुपमा तथा पुष्पवृष्टि का सुन्दर वर्णन किया गया है। उन्होंने ऐसे विवेकशील मानव- समाज का वर्णन किया है जो वनस्पतिक और जैविक संरक्षण के लिए सतत् जागरूक और प्रयत्नशील है। आचार्य श्री विजयवल्लभसूरि व्यक्तित्व-कवि-काव्य + ७१
SR No.023318
Book TitleJain Sahityana Akshar Aradhako
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMalti Shah
PublisherVirtattva Prakashak Mandal
Publication Year2016
Total Pages642
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy