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________________ समरसिंह | ६६ शुभ दिन मन्दिर में वि. सं. १३३० के फाल्गुन शुक्ला ६ शुक्रवार के अनेक आचार्यों के समक्ष पार्श्वनाथ भगवान् के आचार्यपद मुनि बालचन्द्रजी को दिया गया । इस महोत्सव में शाधरने एक लक्ष दीनार खर्च किये थे । जनता आशावर की भूरि भूरि प्रशंसा कर उसे द्वितीय वस्तुपाले या तेजपाल की उपमा देने लगी । आचार्यश्री देवगुप्तसूरिने अपने स्थानापन्न आचार्यश्री सिद्धसूरि को कार्य सोंपने के थोड़े दिन पश्चात् ही स्वर्गधाम को गमन किया । तप श्रशाधने आचार्य श्री सिद्धसूरि को वंदन कर एक बार अनुनय अभ्यर्थना की कि आचार्यवर मुझे धर्मदेशना देकर आत्मकल्याण का कोई सरलमार्ग बताइये | आचार्यश्री को तो इसमें कोई आपत्ति थी ही नहीं । वे उसे धर्मोपदेश सुना कर दान, शील, और भावना पूजा प्रभावना वगैरह के विषय में विशेष विवेचन करने लगे | प्रसंग आने पर उन्होंने शत्रुंजय तीर्थ के महात्मय का भी विवेचन किया और कहा कि यात्रा से कितने कितने ऐहलौकिक और पारलौकिक सुख प्राप्त होते हैं ? आशाधर के कोमल और निर्मल हृदयपर इस बात का विशेष प्रभाव पड़ा । उसने गुरुराज के समक्ष अपनी हार्दिक इच्छा प्रकट की कि मैं भी श्री शत्रुंजय १ साधुराशाधरः संघवात्सल्यं विदधे तथा । अस्मरन् वस्तुपालस्य सर्वदर्शिनिनो यथा ॥ २६० ॥ श्री देवगुप्ता गुरवः क्रमेण त्रिदिवं गताः । तत्संस्कारधरायां तु स्तूपं साधुरकारयत् ॥ २६१ ॥
SR No.023288
Book TitleSamar Sinh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar
PublisherJain Aetihasik Gyanbhandar
Publication Year1931
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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