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________________ समरसिंह । 39 पर महोत्सव के खर्च का सारा लाभ मुझे उपलब्ध हो | इस पर आचार्यश्रीने कहा, " महानुभाव ! अपने उपकेश गच्छ में आचार्य चुनने की प्रणाली इससे भिन्न है। सच्चाईका देवी भविष्य का लाभालाभ विचारकर इस गच्छ के योग्य आचार्य को चुनने का आदेश स्वयं दे दिया करती है ! अतः मैं किसी को अपनी इच्छानुसार चुनना नहीं चाहता । तब आशाधर ने यह प्रस्ताव आचार्य श्री समक्ष रखा - " इसका क्या कारण है कि जब अन्य गच्छों में एक नहीं वरन् अनेक आचार्य हैं तो इस बड़ी संख्यावाले उपकेशगच्छ में केवल एक ही आचार्य होता है ऐसी परिपाटी क्या है ? मेरा ख्याल तो ऐसा है कि यदि कमसे कम प्रत्येक प्रान्त के लिये अपने गच्छका एक एक पृथक आचार्य नियुक्त हो तो इससे कई गुना अधिक उपकार होनेकी संभावना है ।" आचार्यश्रीने प्रत्युत्तर दिया कि यद्यपि कई अवस्थाओं में एक ही गच्छ में अधिक आचार्यों का होना विशेष लाभप्रद है परन्तु कई बार लाभ के बदले हानि होनेकी भी सम्भावना बनी रहती है । यही समझकर अपने श्राचायोंने ऐसी मर्यादा बांध दी है और अबतक एक ही आचार्य होते आरहे हैं जिसका शुभ परिणाम यह हुआ कि इस गच्छ में पारस्परिक प्रतिस्पर्द्धा न होने के कारण अनेक बड़े बड़े शासन - प्रभाविक धुरंधर दिगविजयी आचार्योपाध्यायादि मुनिप्रवर हुए हैं जिन्होंने जैन धर्मकी विजय पताका भूमण्डल फहराई । आज जो श्रीमाल, पोरवाल उपकेशादि जातियों से शासन शोभा पा रहा है वह सब उस पूर्व महर्षियों का ही प्रभाव है और बे सब के सब उसी परिपाटी को निभाते चले आ रहे हैं । में
SR No.023288
Book TitleSamar Sinh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar
PublisherJain Aetihasik Gyanbhandar
Publication Year1931
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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