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________________ ५४ समरसिंह। अपना सारा सर्वस्व सुपुत्र सलक्षण को अर्पण कर अन्त समयमें गुरुसेवामें निश्चिन्तपूर्वक रहकर सातों क्षेत्रों में प्रचुर द्रव्य व्यय कर अक्षय पुण्य उपार्जित करते हुए आराधना में निमग्न रह अनशन पूर्वक स्वर्ग पदको प्राप्त किया। पश्चात् सलक्षण भी अपने पिता की तरह सारे कार्य उचित व्यवस्थापूर्वक चलाने लगा। वह भी नागरिकों में मुख्या और राज्यमान्य व्यक्ति था । . ___ एक बार एक सार्थवाह तरह तरहकी किराने की सामग्री लेकर व्यापारार्थ किराटकूप नगरमें आया । जब सलक्षणसे उसकी भेट हुई तो सलक्षणने विनम्रतापूर्वक पूछा कि कहो भाई ! किस देशसे आए हो? सार्थवाह-" मैं गुजरात प्रान्तसे पाया हूँ।" सलक्षण-" कहिये, आपका प्रान्त कैसा है ?" सार्थवाह-" गुजरात एक हराभरा प्रान्त है जो सदा धन-धान्य-पूर्ण रहता है । सब प्रकारकी वस्तुए वहाँ प्राप्त हो सकती हैं। हमारे प्रान्तके लोग सभ्य, मधुरभाषी और धर्मात्मा हैं। शत्रुजय और गिरनार जैसे भवतारक तीर्थ भी हमारी गुजरातभूमिपर हैं । बड़े बड़े व्यापारी जल और थलके मार्गसे गुजरात में आकर विपुल द्रव्य उपार्जन कर लाखों और क्रोडों रुपये धर्म के काम में व्यय करते हैं।" सलक्षण-"गुर्जरभूमि के लिये यह परम गौरवकी बात है।" सार्थवाह-" महानुभाव ! आपका कथन सत्य है । पर
SR No.023288
Book TitleSamar Sinh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar
PublisherJain Aetihasik Gyanbhandar
Publication Year1931
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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