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________________ ४१ श्रेष्ठिगोत्र और समरसिंह। पर वह नहीं पहुंच सकता था। शिल्पकारोंने उसमें भूलभूलैयाँ जैसी बनावट की थी । जानेवाला व्यक्ति जाकर मार्ग में कहीं अटकता भी नहीं था पर जिस सोपान से प्रवेश होता था उस पर वापस आ भी नहीं सकता था । इसी प्रकार की विचित्रता के कई भवन उस नगर की विशेषता को प्रकट रहे थे । व्यापार, शिल्प और उद्योग का केन्द्र होने के कारण यह नगर घनी आबादीवाला था। इस नगर के अन्दर धन-धान्य से परिपूर्ण तथा मान प्रतिष्ठा को प्राप्त किया हुआ उपकेश-वंश सर्व तरह से अग्रगण्य था। राज्य के उच्च उच्च अधिकारी भी इसी वंश के व्यक्ति थे तथा जिस प्रकार राज्य दरबार के कार्यो में उनका प्रभुत्व तथा हस्ताक्षेप था उसी प्रकार व्यापार का कार्य भी इसी वंश के सु. प्रतिष्ठित योग्य धनी मानी नेताओं के हाथ में था। जिस प्रकार वृक्ष अपने फूल पत्ते और फल द्वारा विशेष शोभायमान होता है उसी प्रकार यह उपकेश वंश रूपी वृक्ष अपनी अठारह गोत्रों शाखाओं और प्रशाखाओं रूपी पत्तों द्वारा खूब प्रतिष्ठित था । इस वंश का चमन हरा भरा तथा गुलजार था । उन अष्टादश गात्रों में भी श्रेष्टि' गोत्र का विशेष गौरव था । इस गौत्र की विशेष महत्ता का कारण यह था कि जब १ तत्पुर प्रभवो वंश उकेशाभिध उन्नतः । सुपर्वा सरलः किन्तु नान्तः शून्यऽस्ति यः क्वचित ॥ ३० ना. नं. प्रबन्ध. २ तत्राष्टादश गोत्राणि पत्राणीव समन्ततः । विभान्ति तेषु विख्यातं श्रेष्ठिगौतं पृथुस्थिति ॥ ३१ ॥
SR No.023288
Book TitleSamar Sinh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar
PublisherJain Aetihasik Gyanbhandar
Publication Year1931
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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