SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 42
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शत्रुजय तीर्थ । ११ यात्रा भावपूर्वक की। गिरिराज की भक्ति में तल्लीन हो बारह ग्राम देव को बतौर बक्षीस के अर्पण किये इस से स्पष्ट सिद्ध होता है कि उस समय गुजरात प्रान्त के राजा और वहाँ की प्रजा की दृष्टि में इस तीर्थाधिराज के प्रति कितनी श्रद्धा और आदर था । अन्यदा सिद्ध भूपालो निरपत्य तयाऽदितः।। तीथयात्रां प्रचक्रामानुपानत्पादचारतः ॥ हेमचन्द्र प्रभुस्तत्र सहानीयत तेन च । विना चन्द्रमसं किं स्यानीलोत्पलमतन्द्रितम् ॥ सन्मान्य तांस्ततो राजा स्थानं सिंहासना ( सिंहपुरा ) भिधम् । दवा द्विजेभ्य मारूढ श्रीमच्छ→जये गिरौ ॥ श्रीयुगादि प्रभु नत्वा तत्राभ्यर्च्य च भावतः । मेने स्वजन्म भूपालः कृतार्थमिति हर्षभूः ॥ ग्राम द्वादशकं तत्र ददौ तीर्थस्य भूमिपः । पूजाय यन्महान्तस्तां चा (स्वा) नुमानेन कुर्वते ॥ वि० सं० १३३४ में श्रीप्रभाचंद्रसूरि विरचित तथा निर्णयसागर प्रेस, बंबई से प्रकाशित — प्रभावक चरित्र के पृष्ट ३१५, श्लोक ३१०, ११, २३ और २५ _ "मथ भूपः सोमेश्वर यात्रायाः प्रत्यावृत्तः श्रीसिद्धाधिपो वैतोपत्यकायां दत्तावासः। x x x शत्रुजय महातीर्थ सन्निधौ स्कन्धावार न्यधात् । x + x गिरिमधिरुह्य गङ्गोदकेन श्रीयुगदिदेवं स्नपयन पर्वतसमीपवर्ति ग्रामद्वादशक शासनं श्री देवार्चायै विश्राणयामास ॥” -वि० सं० १३६ १ में श्री मेरुतुंगसूरि विरचित तथा रामचंद्र दीनानाथ शास्त्री द्वारा प्रकाशित ग्रंथ 'प्रबंधचिंतामणी के पृष्ट १६० और १६१ से
SR No.023288
Book TitleSamar Sinh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar
PublisherJain Aetihasik Gyanbhandar
Publication Year1931
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy