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________________ समरसिंह। ने विक्रमादित्य को अपनी वीरता और उदारता से प्रसन्न कर मधुमति ( महुआ) सहित बारह ग्राम बक्षीस में प्राप्त किये थे । उन्हीं भावड़शाह के पुत्ररत्न जावड़शाहने आचार्य श्रीवत्रस्वामी के सदोपदेश से क्रोडों रुपये व्यय कर इस तीर्थ के उद्धार को कराया और उन्हीं आचार्य श्रीवज्रस्वामी से पुनः प्रतिष्ठा करवाई। यद्यपि यह समय दुष्काल का था तथापि गुरु कृपा से जावड़शाहने इस कार्य को कुशलता से निर्विघ्नतया सम्पादन कर अनंत पुण्योपार्जन किये । जिनकी धवल कीर्ति इस समय में भी विद्यमान है। जैनाचार्य श्री पादलिप्तसूरि भी एक ऐतिहासिक पुरुष हैं । ये प्राचार्य प्रतिष्ठनपुर, भडौंच, मान्नखेड और पाटलीपुत्र आदि नगरों के राजालोगों के धर्माचार्य भी थे। आप द्वारा विरचित " तरंगवती " नामक कथानक ऐतिहासिक साहित्य में आदर की १ एवं च सव्वं कुसलत्तणेण विक्खायकित्ती पालित्तयसरी वंदिऊ-गुञ्जयंतसत्तुंजया इतित्थाणिगमो मगरखेडपुरं । भद्रेश्वरसूरिकी प्रा. कथावली से (पाटणकी ताड़पत्र की प्रति का पृष्ठ २९१ वां)। भागमोदय समिति सूरत से प्रकाशित अनुयोगद्वार सूत्र के पृष्ठ १४९ वे में 'तरंगबइकारे' लिखा हुमा है । इसी प्रकार पंचकल्पचूणि नामक ग्रन्थ में भी इस का नाम पाया है । वह भी इसी ' तरंगवती' की ओर ही संकेत होगा। इस के अतिरिक्त सं० ९२५ में रचे गए महापुरिसचरिय नामक ग्रन्थ के रचयिता आचारांग सूत्रकृतांग वृत्तिकार श्रीशीलंगाचार्यने अपने उस ग्रंथमें 'तरंगवती' ग्रंथ की प्रशंसा की है।
SR No.023288
Book TitleSamar Sinh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar
PublisherJain Aetihasik Gyanbhandar
Publication Year1931
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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