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________________ समरसिंह इच्छित आजीविका अर्पण की गई। इस प्रकार सारे जनों को संतोषित कर संघपति देसलशाह शत्रुजय तीर्थपर पुण्यवृक्ष का अंकुर वपन कर उज्ज्यंत तीर्थ को नमने के लिये गये। * शुभ मुहूर्त में सबसे आगे देवालय चला और उसके पीछे देसलशाह संघ के सब लोगों के साथ चले । सब संघ अमरावती (अमरेली ) आदि गांवों में अद्भुत कृत्यों से जिनशासन को प्रभासित करता हुआ क्रमसे उजयंतगिरि पहुँचा । जूनागढ़ नगर के स्वामी महीपालदेव सं. देसलशाह तथा समरसिंह के अलौकिक गुणों से आकर्षित हो संघ के सम्मुख गये थे । इन्द्र उपेन्द्र की नाई शोभित वनचक्रयुक्त हाथवाले महीपाल और समरसिंह परस्पर प्रेमपूर्वक मिले | पापस में मधुरालाप होने लगा। विविध भेंट देकर हमारे चरितनायकने महीपालदेव को तोषित किया। हमारे चरितनायक को साथ लिये हुए जूनागढ़ नरेश महीपालदेव देसलशाह से मिले । देसलशाह और महीपालदेव के परस्पर क्षेमप्रभालाप हर्षपूर्वक हुआ। पश्चात् संघ समरसिंह की अर्थात् सगर से भी मैं समरसिंहको रेखा के हिसाब से अधिक समझता हूँ. जिसने कि म्लेच्छों के बलसे व्याप्त तीर्थ को कलिकाल में भी उद्धार कर रक्षा की। समरसिंहने तुष्ट होकर उसे इतना द्रव्य अपंग किया कि जितना उसके जीवन पर्यंत निर्वाह के लिये पर्याप्त था। । उपदेशतरंगिणी ( यशोविजय ग्रंथमाला से प्रकाशित ) के पृष्ठ १३७ वें से. पं. शुभशील मणि के वि. सं. १५२९ में रचित ग्रंथ पंचशती प्रबंध (कथाकोष) के २१६ वें सम्बन्ध में उल्लेख किया हुआ है कि उपर्युक्त श्लोक संघपूजा के समय रामभद्धारा कहा गया था
SR No.023288
Book TitleSamar Sinh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar
PublisherJain Aetihasik Gyanbhandar
Publication Year1931
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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