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________________ २८८ समरसिंह. अभिलाषा से सुराष्ट्रानव और वालाक से जैन समुदाय मुंड के मुंड पा रहे थे। हमारे चरित नायकने माघ शुक्ला १३ गुरुवार को यात्राके हित चतुर्विध संघ को एकत्र किया । आचार्य श्री सिद्धसूरि तथा अन्य आचार्यों सहित हमारे चरितनायक पानी लाने के लिये कुंड पर पधारे । दिक्पाल, कुंडाधिष्ठायक देव आदि की विधिपूर्वक पूजा की गई तथा साथ ही में ग्रह आदि की भी पूजा हुई। श्री सिद्धसूरि के मुखारबिंद से उच्चरित मंत्रों द्वारा किया हुआ पवित्र जल कुंभों में भरा गया । कलशों को ले कर सब गाजे बाजे से श्रादीश्वर के मन्दिर पर वापस आए । कलश योग्य स्थान पर स्थापित किये गये। प्रतिष्टा लतिका की मूल भूमि रूप मूलशत को पिसवाना प्रारम्भ किया गया। हमारे चरित नायकने इस काम के लिए चार सौ सधवा स्त्रियों को काम में लगाया जिन के माता, पिता, सास और ससुर जीवित थे। उन स्त्रियों के मस्तक पर आचार्य श्री सिद्धसूरिजीने क्रम से वासक्षेप डाला । वे स्त्रि, मूल शत को हर्षपूर्वक मंगल गीत गाती हुई पीसने लगीं। हमारे चरितनायकने उन महिलाओं को रंग बिरंगे वस्त्र और बहु मूल्य भूषण प्रदान किये थे। __ जिनालय के चारों ओर नौ वेदियों स्थापित कर उन में जवारे स्थापित किये गये थे । प्रभु के सम्मुख नंद्यावर्त को रखने के लिये मंडप के बीच के भाग में एक हाथ ऊँची वर्गाकार वेदी
SR No.023288
Book TitleSamar Sinh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar
PublisherJain Aetihasik Gyanbhandar
Publication Year1931
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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