SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 208
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ फलही और मूर्ति. १७३ कर सब मंत्रमुग्ध थे । हमारे परितनायक के उत्साह, उमंग और सौजन्य की भूरि भूरि प्रशंसा सब ओर से सुनाई दे रही थी। ग्रामों और नगरों के संघोंसे विविध प्रकार पूजा सत्कार पाती हुई फल ही अनुक्रम से पुंडरिक गिरि के नीचे पहुँची। पादलिप्त ( पालीताणा ) के श्रीसंघने पुनः उत्साह से फलही का आगमनोत्सव धूमधाम पूर्वक मनाया । शत्रुजयगिरि पहुँच जाने के समाचार हमारे चरितनायक को मिले तो आपने वधाई लानेवाले को प्रचुर द्रव्य दे कर निहाल किया । उन लोगों को आपने हिदायत की कि पर्वतपर चढ़ाते समय उन उन बातोंपर विशेष ध्यान रखा जाय कि जिस के कारण कार्य निर्विघ्नतया सम्पादित हो। पाटणनगर के विशेषज्ञ १६ सूत्रधारों को बुला कर मूर्ति घड़ने के लिये शत्रुजय पर्वतपर भेजने के लिये नियुक्त किया । नूतन सौराष्ट्र नरेश मंडलिक जिन मुनिवर्य को सदा पितृव्य (चाचा) के नाम से सम्बोधित करता था ऐसे राजमान्य मुनिवर्य जिन का नाम बालचन्द्र था और जो उस समय जूनागढ़ में विराजमान थे, उनको श्री शत्रुजय गिरि पर शीघ्र बुलाया गया था।' बालचंद्रमुनिने शत्रुजयगिरि पर पहुँच फलही को गाड़ी में से सूत्रधारीद्वारा नीचे १ तथा श्री जीर्णप्राकारात् मण्डलीक महाभुजा । नवङ्ख्य सुराष्ट्राणामधिपेन य उच्यते ॥ पितृत्य इति तं साधुर्बालचन्द्राभिधं मुनिम् । भानाययनरान् प्रेष्य शीघ्रं शत्रुजये गिरौ । -नाभिनंदनोद्धार प्रबंध प्रस्ताव ४ थे श्लोक १७
SR No.023288
Book TitleSamar Sinh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar
PublisherJain Aetihasik Gyanbhandar
Publication Year1931
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy