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________________ समरसिंह. उस समय श्री संघकी ओरसे यह भी कहा गया कि देवमन्दिर परव ( ? ) आदि भी करवा दिये जाय तो उत्तम हो । क्यों कि म्लेच्छोंने मुख्य भवन का भी विनाश किया है'। इसके अतिरिक्त यवनों ने देवकुलिकाएँ ( देहरी ) भी गिरादी हैं । ये कार्य होने भी बहुत आवश्यक हैं । यह सुनकर एक पुण्यशाली श्रावकने संघसे विनती की कि मुख्य प्रासाद का उद्धार मेरी ओर से होने का आदेश मिलना चाहिये । संघने प्रत्युत्तर दिया कि आपका उत्साह तो सराहनीय है पर जो व्यक्ति जिनबिंबका उद्धार कराता है उसी के द्वारा यदि मुख्य प्रासादका उद्धार हो तो सोने में सुगंध सदृश शोभा और उत्साह में अभिवृद्धि होंगे। जिसके यहाँ का भोजन हो उसीके यहाँ का ताम्बूल होता है । इस प्रकार श्री संघने समरसिंहको इष्ट आदेश दे दिया और शेष देवकुलिकाएँ वगेरह के लिये अन्यान्य सद्गृहस्थों को आदेश दिया गया था । तत्पश्चात् सब सभासद प्रसन्नचित्त हो अपने अपने घर गए | . १६८ " १ साक्षर श्रीजिनविजयजीने अपने सम्पादित " शत्रुंजय तीर्थोद्वार प्रबंध के उपोद्घात के पृष्ठ २८ वें में लिखा हैं - " वर्तमान में जो मुख्य मन्दिर है और जिसका चित्र इस प्रबंध के प्रारम्भ में दिया गया है वह, विश्वस्त प्रमाण से मालूम होता है, गुर्जर महामात्य बाहड़ संस्कृत में वाग्भट ) से उद्धरित हु है I किन्तु प्रबंध कारके कथनानुसार बाहड़मंत्रीद्वारा उद्धरित मुख्य मन्दिर का भी म्लेच्छोंने विध्वंस किया था । जिस स्थान से यह मन्दिर भंग हुआ था उस जगह से कलश पर्यंत मुख्य भवन के शिखर का उद्धार पीछेसे देसलशाह और समरसिंहने कराया था । ऐसा प्रबंध में आगे उल्लेखित है ।
SR No.023288
Book TitleSamar Sinh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar
PublisherJain Aetihasik Gyanbhandar
Publication Year1931
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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