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________________ समरसिंह १६२ समरसिंहने नम्रतापूर्वक कहा कि श्री संघ की आज्ञा मुझे मान्य है क्योंकि श्री संघ के आदेश को तीर्थकर भी मान्य समझते हैं तत्पश्चात् श्री संघ के आदेश को शिरोधार्य कर हमारे चरितनायकने घर आकर सारा वृत्तान्त अपने पूज्य पिता श्री देसलशाह को सुनाया। धर्मिष्ठ देसजशाह अपने सुपुत्र समरसिंह सहित श्री सिद्धसूरिजी के सम्मुख पहुंचे और विधिपूर्वक वंदना कर प्रार्थना की कि, “ आप की कृपा से हमारे बहुत से मनोरव सफल हुए हैं। हमारी इच्छा है कि श्री तीर्थाधिराज शत्रुजय का उद्धार हमारे हाथ से शीघ्र हो जाने । हमारी अभिलाषा है कि बाप एक मुनि को हमारे कार्य को विधिपूर्वक सम्पादन कराने के लिये सहायक की तरह कृपाकर अवश्य भेजिये " ___ श्री सिद्धसूरि के शिष्यरत्न पं. मदनमुनि गुरु वचन को शिरोधार्य कर शीघ्र आरासण पहुँच गये । श्री देशलशाह की आशा से हमारे चरितनायकने अपने सेवकों को एक पत्र देकर खान के मालिक के पास इस लिये भेजा कि वे खान के पति की भाज्ञा पाकर खान में से एक फलही जिनबिम्ब बनाने के लिये ले आवें ।' १ श्री प्रात्मानंद सभा भावनगरसे प्रकाशित श्री जिनविजयजी विरचित 'शत्रुजय तीर्योद्धार प्रबंध' नामक ग्रंथ में उपोद्घात के पृष्ट ३२२ में उल्लेख है कि, “ बादशाह के अधिकार में मम्माख संगमर्मर पाषाण की खानें थी जिनमें से बहुत बढ़िया भाँति का पत्थर निकला था। समराशाहने वहाँस पत्थर लेने
SR No.023288
Book TitleSamar Sinh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar
PublisherJain Aetihasik Gyanbhandar
Publication Year1931
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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