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________________ उपकेशगच्छ-परिचय । लगाये जाते हैं । शाखा का अर्थ इतना ही है कि नाम के अंत में वह चिह्न रहे यथा-सहजसुन्दर, देवप्रभ, रूपकनक, धनमेरु, ज्ञानसार, मुनिश्चन्द्र और सुमतिसागर आदि प्रत्येक शाखा में सहस्रों मुनि थे । इतनी विपुल संख्या में होने के कारण ही यह गच्छ जेष्ठ गच्छ के नाम से भी संबोधित होता था। इस का दूसरा कारण यह भी था कि यह गच्छ श्रीपार्श्वप्रभु की बंश परम्परा का है। ___ कुछ समय पीछे कक्कसूरि नामक आचार्य हुए। ये राजा और महाराजाओं के गुरु कहलाते थे । इस का यह कारण था कि यह गृहस्थावस्था में क्षत्रिय थे। इसी लिये क्षत्रियोंपर आप के उपदेश का अच्छा असर होता था । आचार्यश्री जिनभक्ति के उत्कट प्रेमी थे । मुनि होते भी आप वीणा वाद्य रस में रक्त थे। जब संघने एतराज पेश किया तो आपने अपने पदपर दूसरे मुनि को नियुक्त कर दिया । फिर आप विदेश की ओर पधार गये। भक्ति में अटूट श्रद्धा होने से आप को जैन सम्राट् रावण की उपमा दी जाती थी। इस घटना के होने से सर्व सम्मति से यह निश्चय हो गया कि इस गच्छ की आचार्य पदवी भविष्य में उपकेश वंशीय (सोसवंश ) को ही दी जाय । माता और पिता दोनों पक्ष के गच्छ निर्मल होतो और भी उत्तम बात हो । यही मर्यादा आज पर्यन्त इस गच्छ में चली आ रही है । इसी जेष्ठ गच्छ में और कक्कसूरि नाम के आचार्य हुये। . १ देखिए-उपकेशगच्छ पट्टावली (ज० सा० संशोधक प्रमासिक से ।)
SR No.023288
Book TitleSamar Sinh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar
PublisherJain Aetihasik Gyanbhandar
Publication Year1931
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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