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________________ ३४२ जैन कथा कोष मरण प्राप्त करके प्रथम स्वर्ग में गया। वहाँ से महाविदेह में उत्पन्न होकर निर्वाण प्राप्त करेगा। -उपासकदशा १० १६६. साहसगति 'वैताढ्य' पर्व के 'ज्योतिपुर' नगर का स्वामी 'ज्वलनशिख' था। उसकी महारानी 'श्रीमती' से एक पुत्री का जन्म हुआ। उसका नाम 'तारा' रखा गया। 'तारा' वास्तव में ही अनेकानेक लोगों के नयनों की तारा (कीकी) थी। 'तारा' के विवाह की तैयारी होने लगी। महाराज 'चक्रांक' का पुत्र 'साहसगति' भी तारा का अभिलाषी था। पर विद्याधर 'ज्वलनशिख' ने यह कहकर उसके प्रस्ताव को ठुकरा दिया कि वह अल्पायु वाला है। तारा का विवाह 'किष्किन्धा' के स्वामी सुग्रीव से कर दिया गया। 'साहसगति' तिलमिला उठा। तारा को पाने के हथकंडे रचने लगा। 'हिमवन्त' पर्वत पर जाकर उसने रूपपरावर्तिनी-विद्या की साधना प्रारम्भ की। __ दृढ़ संकल्प और तन्मयता से विद्या सिद्ध करके सीधा 'किष्किन्धा' पहुँचा। उस समय किष्किन्धा-नरेश महाराज सुग्रीव क्रीड़ा करने वन में गये थे। वह सुग्रीव का रूप बनाकर महल में प्रविष्ट हो गया। जब असली 'सुग्रीव' आये तब द्वारपालों द्वारा वहीं रोक दिये गये। दो सुग्रीव की चर्चा सब जगह फैल गई। ज्येष्ठ बन्धु 'बालि' के पुत्र तथा 'सुग्रीव' के उत्तराधिकारी 'चन्द्ररश्मि' को जब इस घटना का पता लगा तब उसके आदेश से उस नकली सुग्रीव को भी महल से बाहर लाया गया, परन्तु पहचान कोई नहीं सका कि कौन असली है तथा कौन नकली? सच-झूठ को परखने के लिए अनेक प्रयत्न किये गये। यहाँ तक कि चौदह-अक्षौहिणी सेना को भी आधी-आधी करके युद्ध करने के लिए कहा गया। उन दोनों को भी परस्पर युद्ध करने के लिए कहा गया। वैसा किया भी गया, परन्तु परिणाम कुछ भी न निकला। कोई भी उस छली की चाल नहीं समझ सका। उन दिनों राम-लक्ष्मण वनवास में महाराज 'वीर विराध' के यहाँ 'पाताल लंका' में अवस्थित थे। 'सुग्रीव' ने दूत भेजकर उनको वहाँ आने के लिए कहलाया। 'वीर विराध' के कहने से अन्त में स्वयं वहाँ गया तथा संकट मिटाने की प्रार्थना की। 'सुग्रीव' की विरह-व्यथा सुनकर स्वयं 'राम' को भी 'सीता'
SR No.023270
Book TitleJain Katha Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChatramalla Muni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh prakashan
Publication Year2010
Total Pages414
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size28 MB
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