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________________ १८ जैन कथा कोष से आये। वैशाख बदी १३ को प्रभु का जन्म हुआ। जिस समय पुत्र का जन्म हुआ, उस समय अयोध्या नगरी शत्रुओं से घिरी हुई थी। उस अमित बल वाली शत्रु-सेना को 'सिंहसेन' ने सहज में हरा दिया। महराज ने इस अप्रत्याशित विजय की श्रेय का हेतु अपने नवजात शिशु को माना ! इसलिए पुत्र का नाम रखा 'अनन्तजित'। पिता को सन्तुष्ट करने के लिए युवावस्था में कुमार अनन्तजित ने विवाह भी किया और राजसिंहासन पर बैठकर प्रजा का पालन भी किया। वर्षीदान कर एक हजार राजाओं के साथ वैशाख बदी १४ को संयम स्वीकार किया। तीन वर्ष तक छद्मस्थ रहकर वैशाख बदी १४ को कैवल्य प्राप्त किया। अन्त में सम्मेद शिखर पर एक मास के अनशन में सात हजार साधुओं के साथ चैत्र सुदी ५ को मोक्ष पधारे। अनन्तनाथ जैन परम्परा के चौदहवें तीर्थंकर थे। धर्म-परिवार गणधर ५० वादलब्धिधारी ३,२०० केवली साधु ५००० वैक्रियलब्धिधारी ८,००० केवली साध्वी १०,००० साधु ६६,००० मनःपर्यवज्ञानी ५००० साध्वी १,००,८०० अवधिज्ञानी ४३०० श्रावक २,०६,००० पूर्वधर १००० श्राविका ४,१४,००० -त्रिषष्टि शलाकापुरुष चरित्र १५. अनाथी मुनि अनाथी कौशाम्बी नगरी के 'धन-संचय' नामक सेठ के पुत्र थे। इनका नाम 'गुणसुन्दर' था। माता-पिता के लाड़-प्यार में पोषित कुमार का युवावस्था में अनेक सुन्दर नवयुवतियों के साथ विवाह किया गया। सम्पन्न परिवार था, घर में धन के अम्बार थे। सभी प्रकार के सुख का संचार था, फिर भी पूर्वजन्म के दुष्कर्मों के कारण कुमार की आँखों में वेदना शुरू हो गई। वेदना इतनी भयंकर थी कि उसने सारे शरीर पर अपना अधिकार जमा लिया। क्षण-भर का चैन भी कुमार को नहीं मिल रहा था। अभिभावकों ने पैसे को पानी की तरह बहाया, वैद्यों से चिकित्सा करवाई परन्तु 'ज्यों-ज्यों दवा की, मर्ज बढ़ता ही
SR No.023270
Book TitleJain Katha Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChatramalla Muni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh prakashan
Publication Year2010
Total Pages414
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size28 MB
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