SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 324
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन कथा कोष ३०७ कर दी, वह भी बिना मन से सुने हुए वावय ने। क्या ही अच्छा होता यदि मैं उनके सम्पर्क में आ जाता। कुछ लाभ लिया होता। यों चिन्तन करते-करते ही सारी भावना बदल गई। 'अभय' के सामने अपने सारे कृत्यों का पर्दाफाश करते हुए अनुताप किया। चुराया हुआ सारा द्रव्य श्रेणिक' को सौंपकर स्वयं संयमी बन गया। त्याग-तपस्या के बल से स्वर्ग गया। -व्यवहारसूत्र वृत्ति . १७५. वरुण वरुण वैशाली नगरी के महाराज 'चेटक' के रथिक 'नाग' का पुत्र था। वरुण महावीर का परमभक्त बारहव्रती श्रावक था। यह महासमर्थ सनापति था, तो तप करने में भी महासमर्थ था। एक बार वेले के तप में इसे महाराज 'चेटक' ने युद्ध में जाने के लिए कहा। यह 'कूणिक' के विरुद्ध युद्ध में गया। परन्तु इसका नियम था कि प्रथम अपनी ओर से किसी पर आक्रमण नहीं करना। प्रत्याक्रमण करने के लिए तैयार होकर रणभूमि में जाता था। 'कूणिक' के सेनापति ने 'वरुण' पर आक्रमण किया। वह आक्रमण मर्मभेदी था। फिर भी इसने प्रत्याक्रमण में 'कूणिक' के सेनापति को एक बाण में ही परलोक पहुँचा दिया। पर स्वयं भी अधिक घायल हो चुका था। अतः समरांगण के बाहर आकर एकान्त स्थान पर पहुँचा। वहाँ सम्यक् विधि से भूमि का परिमार्जन कर आलोचना की। अनशन स्वीकार किया। विशुद्ध परिणामों से मृत्यु प्राप्त करके प्रथम स्वर्ग में गया। वहाँ से महाविदेह में होकर निर्वाण प्राप्त करेगा। -भगवती, ५/६ १७६. वायुभूति गणधर 'वायुभूति' भगवान् महावीर के प्रथम गणधर ‘इन्द्रभूति' और द्वितीय गणधर 'अग्निभूति' के सहोदर थे। इनका भी ‘गौतम' गोत्र, 'वसुभूति' ब्राह्मणपिता तथा 'पृथ्वी' माता थी। इनके मन में सन्देह था—'शरीर ही आत्मा है या शरीर आत्मा से भिन्न है?' ये अपने पाँच सौ शिष्यों के साथ भावान् महावीर के पास पहुँचे । भगवान् महावीर ने इनके इस सन्देह का निवारण किया। सन्देह मिट जाने पर इन्होंने अपने शिष्यों सहित भगवान् महावीर का शिष्यत्व स्वीकार
SR No.023270
Book TitleJain Katha Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChatramalla Muni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh prakashan
Publication Year2010
Total Pages414
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy