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________________ जैन कथा कोष १५६ गईं। चारों ओर से 'जम्बूकुमार' को घेरकर आठों बैठ गईं। 'जम्बू' ने पत्नियों को अपनी ओर खींचना चाहा। संयम-पथ पर ले चलने का प्रयत्न किया। आठों अप्सरा-सी ललनाएं हाव-भाव करके अपनी ओर खींचने का प्रयत्न करने लगीं। ___ संयोग ऐसा बना कि उस समय 'प्रभव' नाम का तस्करराज अपने पाँच सौ साथियों को लेकर दहेज में आयी धन सामग्री चुराने वहाँ आया। 'प्रभव' के पास दो चमत्कारी विद्याएँ थीं-एक 'अवस्वापिनी' और दूसरी 'तालोद्घाटिनी'। पहली से जहाँ सबको निद्राधीन किया जा सकता है, वहाँ दूसरी से ताले खोले जा सकते हैं। 'प्रभव' ने यहाँ पर भी ‘अवस्वापिनी' विद्या का प्रयोग किया। सभी निद्रालीन हो गये, किन्तु जम्बूकुमार और उसकी पत्नियों पर इसका कोई असर न हुआ। पाँच सौ चोरों ने मनचाहा धन बटोरकर बड़े-बड़े गट्ठर बाँध लिये। लेकिन ज्यों ही चलने लगे, देखा कि सभी के पैर जमीन से चिपक गये हैं। हिलना-डुलना भी सब का बन्द है। 'प्रभव' घबराया। उसे महलों में कुछ घुस-पुस सुनाई दी। महल के बाहर खड़ा हो अन्दर हो रहे वार्तालाप को सुनने लगा। एक-एक उदाहरण के माध्यम से आठों पत्नियों ने जम्बूकुमार को समझाना चाहा। 'जम्बूकुमार' ने उस सब के दृष्टान्तों का क्रमशः खण्डन करके अपनी बात की पुष्टि के लिए एक-एक दृष्टान्त देकर उन सबको संयम-पथ पर आने के लिए तैयार कर लिया। आठों पत्नियाँ अपने लक्ष्य में पराजित रहीं—जम्बू विजयी रहे। __वह सारा संवाद सुनकर प्रभव भी प्रतिबुद्ध हो उठा। सोचा—मुझे धिक्कार है ! जम्बूकुमार तो इन नवेलियों को छोड़कर और अपरिमित द्रव्य को ठुकराकर जा रहा है और मैंने क्षत्रिय-पुत्र होकर भी यह नीच धन्धा पकड़ रखा है। 'जम्बूकुमार' के पास जाकर उसने अपने साथियों को मुक्त करने की प्रार्थना की। सभी के हाथ-पैर खुल गये। प्रभव के प्रबोध से पाँच सौ चोर भी संयम लेने के लिए तैयार हो गये। जम्बूकुमार के माता-पिता, उन आठों पत्नियों के माता-पिता—इस प्रकार पाँच सौ अट्ठाईस व्यक्तियों ने सुधर्मा स्वामी के पास दीक्षा ली। जम्बूकुमार सोलह वर्ष घर में रहे। छत्तीसवें वर्ष में इन्हें केवलज्ञान प्राप्त
SR No.023270
Book TitleJain Katha Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChatramalla Muni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh prakashan
Publication Year2010
Total Pages414
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size28 MB
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