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आराधना नहीं करनी चाहिए, बल्कि यह तीनों जिस आत्मा में हैं, उस आत्मा की आराधना करनी चाहिए। यही मोक्षमार्ग है। आत्मा को छोड़कर रत्नत्रय की आराधना नहीं होती। आराधना तो आत्मा की होती है। यही दर्शन है। यही ज्ञान है। यही चारित्र है। रत्नत्रय सहित आत्मा ही मोक्ष का कारण होता है। आत्मा का श्रद्धान करना निश्चय सम्यग्दर्शन है। आत्मा का ज्ञान करना निश्चय सम्यग्ज्ञान है। आत्मा में लीन होना सम्यक्चारित्र है।
जीवादि सात तत्त्वों का श्रद्धान करना व्यवहार सम्यग्दर्शन है। यह सम्यग्दर्शन आत्मा का वास्तविक स्वरूप है। इस सम्यग्दर्शन के होने पर जो ज्ञान होता है, वह व्यवहार सम्यग्ज्ञान कहलाता है और वह अनेक प्रकार का होता है। सम्यक्चारित्र दो प्रकार का है-1. व्यवहार चारित्र, 2. निश्चय चारित्र।
1. अशुभ कार्यों को छोड़कर शुभ कार्यों में मन लगाना व्यवहार चारित्र है। यह चारित्र पाँच महाव्रत, पाँच समिति और तीन गुप्ति मिलाकर तेरह प्रकार का होता है।
2. संसार के कारणों को नष्ट करने के लिए ज्ञानी पुरुष बाहरी क्रियाओं को रोकते हैं, वह निश्चय सम्यकचारित्र है।
हमें जीवन में व्यवहार चारित्र का पालन करते हुए निश्चय चारित्र पालना चाहिए। दोनों का समन्वय करना जरूरी है, अति आवश्यक है। मुनिराज दोनों ही प्रकार के चारित्र को धारण करते हैं, क्योंकि वह ध्यान करते हैं, ध्यान के द्वारा सभी विकारों को दूर कर सकते हैं।
ध्यान की सिद्धि प्राप्त करने के लिए इष्ट और अनिष्ट पदार्थों में राग और द्वेष नहीं करना चाहिए। मन को सभी विकारों से मुक्त करके मन को स्थिर करना चाहिए। ण्मोकार मन्त्र आदि अनेक मन्त्रों की जाप करना चाहिए, जिससे मन स्थिर हो जाए। ज्यादा न कर सको, तो सिर्फ 'ॐ' का जाप कर मन को स्थिर करना चाहिए।
ध्यान की सरलता के लिए ही इस ग्रन्थ में पाँचों परमेष्ठी के गुणों का बहुत सुन्दर चित्रण किया है। जिससे श्रावक इनके गुणों से अनुराग करके ध्यान में मन लगा सकते हैं।
अरिहन्त परमेष्ठी वे हैं, जिन्होंने चार घातिया कर्म नष्ट कर दिए हैं, जो अनन्त दर्शन, सुख और ज्ञान से युक्त है।
सिद्ध परमेष्ठी वे हैं, जो आठ कर्मों तथा पाँच शरीर से रहित हैं, जो लोक अलोक को जानने व देखनेवाले हैं, लोक के शिखर पर स्थित हैं।
170 :: प्रमुख जैन ग्रन्थों का परिचय