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ध्यान देते हैं, पर शुद्धता पर ध्यान नहीं देते हैं।
2. अर्थाचार : दूसरा अंग है-अर्थाचार अर्थात् श्लोक, गाथा, सूत्र, पाठ आदि का शुद्ध अर्थ जानना, करना। प्रायः देखा जाता है, हम पूजन, पाठ, स्तोत्र आदि दूसरों के देखा-देखी या सुनकर पढ़ते रहते हैं, प्रायः रोज पढ़ते हैं, लेकिन उनके अर्थ से, भाव से परिचित नहीं हैं, अतः सम्यग्ज्ञान का दूसरा अंग कहता है कि जो भी पढ़ो, सोच-समझकर पढ़ो।
3. उभयाचार : शब्द और अर्थ दोनों का ही पूर्ण ज्ञान होना उभयाचार अंग है-सूत्र, पाठ, श्लोक आदि शुद्ध पढ़ो और अर्थ समझकर पढ़ो। ये बात सम्यग्ज्ञान का तीसरा अंग कहता है।
4. कालाचार : सन्ध्याकाल (सूर्योदय, सूर्यास्त, मध्याह्न और मध्यरात्रि, इनके पहले और पीछे का मुहूर्त सन्ध्याकाल है।) को छोड़कर शेष के उत्तम कालों में पठन-पाठन, स्वाध्याय करने को कालाचार कहते हैं। सन्ध्याकाल के प्रथम तथा अन्तिम दो घड़ी में, सिद्धान्त के ग्रन्थों का पठन-पाठन करना वर्जित है। स्तोत्र, आराधना, धर्म कथा आदि के ग्रन्थ पढ़ सकते हैं।
5. विनयाचार : पूर्ण आदर और विनय के साथ स्वाध्याय करना विनयाचार अंग है। जिनवाणी के प्रति, गुरुओं के प्रति पूर्ण आदर एवं श्रद्धा-विनय रखना चाहिए। स्वाध्याय करने के बाद जिनवाणी को यथास्थान सम्मान के साथ रखना चाहिए।
6. उपधानाचार : याद करने के बाद भूलना नहीं चाहिए। जो याद किया हो, बार-बार उसका अभ्यास करना चाहिए। उपधान (स्मरणपूर्वक) सहित ज्ञान की आराधना करना उपधानाचार अंग है।
7. बहुमानाचार : ज्ञान की पुस्तक, शास्त्र आदि का तथा पढ़ानेवाले गुरु का बहुत आदर करना बहुमानाचार अंग है।
वर्तमान समय में ये अंग गायब ही हो गये हैं। श्रावक, शिष्य, विद्यार्थी और बच्चे, सभी लोग गुरु और पुस्तक का आदर करना तो भूल ही गये हैं। मात्र दोष ही शिक्षकों के देखते रहते हैं। भारतीय शिक्षा पद्धति के पतन होने का कारण भी यही है कि हमें ज्ञान का, गुरुओं का बहुमान नहीं है। हमें शिक्षकों का सम्मान करना चाहिए, बहुमान करना चाहिए, जिनवाणी की कीमत पहचानना चाहिए।
8. अनिह्नवाचार : (ज्ञान को छिपाना) जिस शास्त्र अथवा गुरु से जो ज्ञान प्राप्त हुआ है, उसे छिपाना नहीं चाहिए। जिनवाणी को भी छिपाकर या बिना सूचना दिए घर नहीं लाना चाहिए। इन सब कार्यों से सम्यग्ज्ञान में दोष लगता है।
128 :: प्रमुख जैन ग्रन्थों का परिचय