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________________ તપશ્ચર્યા પ્રકરણ - ૬ ६१. गिलाणस्स अगिलाए वैयावच्चकरणयाए अब्भुट्टेयव्वं भवइ । - स्थानांग ८ दोनों की सेवा के लिए सदा तत्पर रहना चाहिए। ६२. जे भिक्खू गिलाणं सोच्चा णच्चा न गवेसइ, न गवसंतं वा साइज्जइ..............आवज्जइं, चउमासियं परिहारठाणं अणुग्घाइयं । - निशीथ भाष्य १०/३७ यदि कोई समर्थ साधु किसी साधु को बीमार सुनकर एवं जानकर बेपरवाही से उनकी सार-सम्भाल न करे तथा न करने वाले की अनुमोदना करे तो उसे गुरु चातुर्मासिक प्रायश्चित आता है। ६३. दव्वेण भावेणा वा जं अप्पणो परस्स वा। उवकारकरणं, तं सव्वं वेयावच्चं । - नीशीथचूर्णि ६६०५ भोजन, वस्त्र आदि द्रव्य रूप और उपदेश एवं सत्प्रेरणा आदि भाव रूप से जो भी अपने को तथा अन्य को उपकृत किया जता है, वह सब वैयावृत्य है। ६४. सज्झाए वा निउत्तेण सव्वदुक्खमोक्खणो - उत्तराध्ययन २६/१० शास्त्रों का स्वाध्याय करते रहने से समस्त दुःखों से मुक्ति मिलती है। ६५. सज्झायं च तओ कुज्जा सव्वभावविभावणं । - उत्तराध्ययन २६/३७ स्वाध्याय सब भावों (विषयों) का प्रकाश करने वाला है। ६६. सज्जाए णं नाणावरणिज्जं कम्मं खवेइ । - उत्तराध्ययन २९/१८ स्वाध्याय करने से ज्ञानावरण (ज्ञान को ढकने वाले) कर्म का क्षय होता है। ६७. नवि अत्थि, नवि अ होही, सज्झाय समं तवो कम्मं । - बृहत्कल्पभाष्य ११६९
SR No.023263
Book TitleTapascharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiranjanmuni
PublisherAjaramar Active Assort
Publication Year2014
Total Pages626
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size18 MB
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