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उपर्युक्त सन्दर्मों के अनुसार एक बात तो निर्विवाद सिद्ध है कि शास्त्रार्थ-विजेता आचार्य जिनेश्वरसरि ही थे। शास्त्रार्थ के समय वे आचार्य वर्धमानसूरि के साथ थे, या बुद्धिसागरसूरि उनके साथ थे, यह कुछ विवादास्पद हो सकता है। मेरी विनम्र बुद्धि के अनुसार तो आचार्य जिनेश्वरसूरि के साथ बुद्धिसागरसूरि ही थे। पहली बात तो आचार्य वर्धमानसूरि स्वयं इतने प्रकाण्ड विद्वान् थे कि उनके रहते आचार्य जिनेश्वरसूरि को शास्त्रार्थ का प्रतिनिधित्व सौंपने की आवश्यकता ही नहीं थी। दूसरी बात यह है कि जिनेश्वर एवं बुद्धिसागर दोनों भाई-भाई थे। अतः उनका साथ-साथ रहना स्वाभाविक है । ज्ञान-प्रखरता की दृष्टि से बुद्धिसागर जिनेश्वर से भी अधिक बढ़ेचढ़े थे। यदि वर्धमानसूरि अपने शिष्यों में से ही किसी को शास्त्रार्थ का प्रतिनिधित्व देते तो शायद बुद्धिसागरसूरि का क्रम पहला आ जाता। ऐसा लगता है कि जिनेश्वर और बुद्धिसागर युगल-बन्धुओं में जिनेश्वर बड़े भाई थे, अतः जिनेश्वरसूरि ने ही शास्त्रार्थ किया और शास्त्रार्थ के समय वर्धमानसूरि की सन्निधि न हो कर जिनेश्वर एवं बुद्धिसागर युगलबन्धु की ही उपस्थिति थी। खरतर-नामकरण
'खरतर' शब्द प्रखरता का परिचायक है। खरतरगच्छ 'यथा नाम तथा गुण' की उक्ति को चरितार्थ करता है। जिस प्रकार ईसाई समाज में "प्यूरीटन" नाम की उत्पत्ति उप्र सुधारवाद के वातावरण को लेकर हुई, उसी प्रकार "खरतरगच्छ” के नामकरण का आधार है। 'खरतर' शब्द-सम्बोधन महाराज दुर्लभराज ने आचार्य जिनेश्वरसूरि के लिए किया था। जिनेश्वर वज्रशाखा के अनुगामी थे। उन्होंने चैत्यवासियों को जिस भूमिका पर परास्त किया, इससे उनकी सारे समाज में यशोगाथा फैली। दुर्लभराज ने सभी सभासदों के बीच जिनेश्वर की प्रतिभा का गुणगान किया और उन्हें खरतर प्रखर