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मुनियों का पत्तन में ठहरना वर्जित करा रखा था, परन्तु वहां का राजपुरोहित दोनों आचार्यों को विद्वत्ता तथा प्रतिभा से अत्यन्त प्रभावित हुआ और उसने अपनी पाठशाला/अश्वशाला ठहरने के लिए दे दी। जब चैत्यवासियों को वस्तु स्थिति का पता चला, तो उन्होंने दोनों आचार्यों को निकालने के लिए उचित-अनुचित उपाय किये, किन्तु उन्हें सफलता नहीं मिली । अन्त में राजपुरोहित की प्रेरणा से महाराजा दुर्लभराज की सभा में आचार्य जिनेश्वरसूरि और चैत्यवासियों के बीच परस्पर शास्त्रार्थ हुआ। शास्त्रार्थ-विजेता जिनेश्वरसूरि को दुर्लभराज ने खरतर विरुद से सम्मानित किया, जिसका अर्थ होता है-खरा, स्पष्टवादी, शुद्ध, हृदयशील और अति तेजस्वी। वस्तुतः खरतरगच्छ के नामकरण का सम्बन्ध उसी शास्त्रार्थ-विजय से है। शास्त्रार्थ-विजय : क्रान्ति का पहला सफल चरण
खरतरगच्छ के आदि प्रवर्तक आचार्य जिनेश्वरसूरि ने जो क्रान्तिकारी कदम बढ़ाए, उसमें उन्हें शत प्रतिशत सफलता मिली। चैत्यवासियों के विरोध में उनके क्रान्तिकारी स्वर अभेद्य रहे । उन्हें सर्वप्रथम सफलता मिली चैत्यवासियों के साथ हुए शास्त्रार्थ में। उनकी स्फूरणशील मनीषा ने चैत्यवासियों को पगभूत कर दिया। दो पक्ष में एक को श्रेष्ठ सिद्ध करने के लिए उस समय शास्त्रार्थ प्रमुख था। आचार्य जिनेश्वरसूरि अपने प्रथम चरण में सफल एवं विजयी सिद्ध हुए। वह शास्त्रार्थ इतिहास के पन्नों में अपना मूल्य रखता है। ___ आचार्य जिनेश्वरसूरि का शास्त्रार्थ किस चैत्यवासी आचार्य के साथ हुआ, यह भी उल्लेखनीय है। वृद्धाचार्य प्रबन्धावली में लिखा है कि आचार्य जिनेश्वरसूरि का चुलसीगच्छ (चौरासी गच्छ) के भट्टारक द्रव्यलिंगी चैत्यवासी के साथ दुर्लभराज की सभा में वाद हुआ। उसमें चैत्यवासी आचार्य पराजित हुए और जिनेश्वरसूरि विजित ।' . खरतरगच्छ वृहद् गुर्वावली, पृष्ठ ६०