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गोत्रों की चर्चा की गई है। भगवान् ऋषभ और महावीर का गोत्र काश्यप था। महावीर के प्रमुख शिष्य इन्द्रभूति का गोत्र गौतम था । वीर निर्वाण सं० ६८० तक प्राचीन गोत्रों की परम्परा अव्याबाध रूप से चली । तत्परवर्तीकाल में नये-नये वंशों एवं गोत्रों की स्थापना के उल्लेख मिलते हैं ।
श्वेताम्बर जैन परम्परा में नये गोत्रों की स्थापना का प्रथम श्रेय आचार्य रत्नप्रभसूरि और स्वयंप्रभसूरि को है । खरतरगच्छाचार्यो में आचार्य जिनवल्लभसूरि, जिनदत्तसूरि, जिचचन्द्रसूरि आदि आचार्यों ने शताधिक नूतन गोत्र स्थापित किये । नाहटा बन्धुओं के अनुसार आचार्य श्री वर्धमानसूर से लेकर अकबर - प्रतिबोधक श्री जिनचन्द्रसूरि तक के आचायों ने लाखों अजैनों को जैनधर्म का प्रतिबोध दिया । ओसवाल वंश के अनेक गोत्र इन्हीं महान् आचार्यों के स्थापित हैं । महत्तियाण जाति की प्रसिद्धि श्री जिनचन्द्रसूरि से विशेष रूप में हुई । इस जाति के भी ८४ गोत्र बतलाये जाते हैं । श्रीमाल जाति के १३५ गोत्रों में ७६ गोत्र खरतरगच्छ के प्रतिबोधित बतलाये गये हैं । पोरवाड़ जाति के पंचायणेचा गोत्र वाले भी खरतरगच्छानुयायी थे । ' नाहटाबन्धुओं ने खरतरगच्छीय गोत्रों के प्राचीन प्रमाण संकलित किये हैं और उन्हें 'खरतरगच्छ के प्रतिबोधित गोत्र और जातियाँ' नाम से पुस्तक रूप में प्रकाशित किया है । उन प्रमाणों में ओसवाल - वंश के ८४, श्रीमाल के ७६, पोरवाड़ और महत्तियाण के जिक्र किया गया है ।
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१६६ गोत्रों का
खरतरगच्छ ने केवल जैनीकरण ही नहीं किया, अपितु जैन समाज के अनुरूप नूतन जैनों को ढ़ाला भी। उन्हें जैनधर्म के अनुरूप सामाजिक व्यवस्थाएँ दी गई, धार्मिक एवं सांसारिक व्यावहारिकताएँ उनसे जोड़ी गई । जैन विधिमूलक व्यवहार-धर्म का पालन करने
९ खरतरगच्छ के प्रतिबोधित गोत्र और जातियाँ, पृष्ठ ३
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