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(६) पान, मुखावास आदि भक्षण करते हुए चैत्य में प्रवेश नहीं करना चाहिए।
(७) चैत्यों में जाति या ज्ञाति का कदाग्रह नहीं होना चाहिए। प्रत्येक भव्य व्यक्ति मंदिर में जा-आ सकता है।
उपर्युक्त सप्त विधानों में पंचम विधान को छोड़कर वर्तमान में अन्य सभी षष्ठ विधान क्रियमान हैं। यद्यपि पंचम विधानानुसार रात्रि के समय नारियों का चैत्य में प्रवेश निषिद्ध है, किन्तु नये -सुधारवाद के प्रभाव स्वरूप नारियां रात्रि काल में भी चैत्यों/जिनालयों में गमनागमन करती हुई देखी जाती हैं।
वस्तुतः नारी को मासिक धर्म के चार दिन के साथ पूर्ववर्ती तीन दिन एवं पश्चवर्ती तीन दिन तक मन्दिर में जिन-पूजा हेतु नहीं जाना चाहिये, ताकि मन्दिर की सात्विकता, पवित्रता व अतिशयता बनी रहे।
खरतरगच्छ के पूर्व निर्दिष्ट विधानों का उल्लेख निम्न पद्यों के आधार पर किया गया है
अत्रोत्सूत्रजनक्रमो न च न च स्नात्रं रजन्यां सदा, साधूनां ममताश्रयो न च न च स्त्रीणां प्रवेशो निशि । जाति-ज्ञाति कदाग्रहो न च न च श्राद्धेषु ताम्बुलमित्याज्ञांऽत्रेयमनिश्रिते विधिकृते श्रीवीरचैत्यालये। इह न लगुडरासः स्त्रीप्रवेशो न रात्रौ, न च निशि बलि-दीक्षा-स्नात्र-नृत्य-प्रतिष्ठाः । प्रविशति न च नारी गर्भगेहस्य मध्येनुचितमकरणीयं गीतनृत्यादिकार्यम् ।' चैत्यालयों की भांति खरतरगच्छाचार्यों ने श्रमण साधुओं के लिए भी निम्नांकित कर्तव्यों का परिपालन करना अनिवार्य बताया, जिनके १ संघपट्टक-टीका, चर्चरी-टीका ( उद्धृत वल्लभ भारती, पृष्ठ ६६ ) एवं
अष्टसप्ततिका (चित्रकूटीय वीर चैत्य-प्रशस्ति)
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