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वि० सं० ११६९ में लोद्रवपुर में भाटी राजा धर ने आचार्य जिनदत्तसूरि से भाण्डशाला में धर्म श्रवण कर बारह ब्रत अंगीकार किये अतः उनका गोत्र भाण्डशाली/भन्साली स्थापित हुआ। ___ रत्नपुरी नरेश धनपाल का जिनदत्त ने सर्प विष दूर किया था। धनपाल ने रतनपुरा में आचार्य श्री का चातुर्मासिक प्रवास कराया और उनसे तत्वज्ञान प्राप्त कर जैन श्रावक हो गया आचार्य जिनदत्त ने नगर के नाम से उस राजवंश का गोत्र रतनपुरा स्थापित किया। कटारिया, रामसेना, बलाई, वोहरा, कोटेचा, सांभरिया, नराणगोता, भलाणिया, सापद्राह. मिनी आदि गोत्र इसी रतनपुरा गोत्र की शाखाएँ हैं। राजा धनपाल के साथ अन्य अनेक क्षत्रियों ने जैनत्व स्वीकार किया था। बेड़ा, सोनगरा, हाड़ा, देवड़ा, काच, नाहर, मालडीचा, बालोत, बाघेटा, इवरा, रासकिया, साचोरा, दुदणेचा, माल्हण, कुदणेचा, पाबेचा, विहल, सेंमटा, काबलेचा, खीची, चीवा, रापडिया, मेलवाल, वालीचा ये चौतीस गोत्र उन्हीं क्षत्रियों से सम्बन्धित है। ---- रत्नपुर के राजा धनपाल का मंत्री माल्हदे था जो माहेश्वरी था। माल्हदे के एक पुत्र का अद्धांग रोग पीड़ित था । आचार्य श्री जिनदत्त ने योगनियों को आदेश देकर उसको रोग मुक्त कर दिया। माल्हदे ने जैनधर्म अंगीकार किया। उसका माल्हू गोत्र प्रसिद्ध हुआ। ___ धनपाल राजा का भंडारी राठी माहेश्वरी भाभू ने भी जिनदत्त से जैनत्व स्वीकार किया जिससे बुच्चापारख हुए। मूंधड़ा महेश्वरियों से 'डागा' गोत्र उद्भूत हुआ। रत्नपुर निवासी राठियों से ही मोरा, रीहड़, छोड़िया, सेलोत आदि लगभग पचास गोत्र निकले थे।
एक बार रांका-बांका नामक सद्गृहस्थ आचार्य जिनदत्तसूरि के प्रवचन में आए। प्रवचन से प्रभावित हुए और बारह व्रतधारी श्रावक बने। ऐसा करने से - उन्हें अपार समृद्धि प्राप्त हुई। इन्ही