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विक्रम संवत् ११६६, वैशाख शुक्लपक्ष १, शनिवार के दिन आचार्यप्रवर देवभद्रसूरि ने सोमचन्द्र को समस्त खरतरगच्छीय श्रमणसंघ में परम योग्य जानकर श्रेष्ठि साधारण द्वारा निर्मापित भगवान् महावीर के विधि-चैत्य में महोत्सवपूर्वक आचार्य-पदारूढ़ किया और उन्हें आचार्य जिनवल्लभसूरि के पट्टधर घोषित किए। इसी समय उनका सोमचन्द्र नाम परिवर्तित कर जिनदत्तसूरि नामकरण हुआ।
आचार्य-पदालंकृत होने के पश्चात् जिनदत्त ने स्वर्गस्थ आचार्य हरिसिंहसूरि की आराधना की और उनसे प्राप्त संकेतानुसार उन्होंने मुनिमण्डल के साथ मरुधर देश की ओर मंगल विहार किया । क्रमशः विचरण करते हुए वे नागपुर (नागोर) पहुँचे, जहाँ विविध शासनप्रभावक कार्य हुए। आचार्य के द्वारा आयतन-अनायतन विषयक विशुद्ध प्ररूपणा से श्रेष्ठि धनदेव आदि अनेक श्रावक प्रतिबुद्ध हुए।
परन्तु युगप्रधानाचार्य गुर्वावली ने तो यह लिखा है कि धनदेव ने आचार्य से निवेदन किया था कि यदि आयतन-अनायतन विषयक प्ररूपणा करनी छोड़ दे तो वह उन्हें दोनों पक्षीय लोगों द्वारा श्रद्धा केन्द्र बना देगा, किन्तु जिनदत्तसूरि ने उसके निवेदन को अस्वीकार कर दिया। धनदेव को छोड़कर अन्य सभी लोग जिनदत्त के समर्थक हुए।
नागपुर से प्रस्थान कर वे अजमेर गये। अजमेर के चौहान राजा अर्णोराज ने इनकी अगवानी की और इनके समागम का लाभ संप्राप्त किया। राजा ने जिनदत्त सूरि से प्रभावित होकर जैनसंघ को विधि चैत्य निर्माणार्थ विस्तृत भूमि भेंट की।
जिनदत्तसूरि ने राजा को धर्मलाभ का आशीर्वाद दिया। उपाध्याय जिनपाल के अनुसार जिनदत्त ने निम्न श्लोक के द्वारा राजा को आशीर्वाद प्रदान किया था---
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