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अर्थात् किये हुए उपकार को न मानने वाले कृतघ्न पुरुष पहले भी थे, किन्तु प्रत्यक्ष में किये जाने वाले उपकार को न मानने वाले भी कृतघ्न पुरुष तो इस समय देखे जाते हैं। इससे मुझे पुनः पुनः विचार आता है कि भविष्य में होने वाले लोग कैसे होंगे?
एक बार जिनवल्लभ बहिभूमिका जा रहे थे। मार्ग में एक पण्डित मिला और उसने उनके सामने एक समस्या पद प्रस्तुत किया
कुरङ्ग किं भृङ्गो मरकत मणिः किं किम शनिः । जिनवल्लभ ने तत्काल समस्या पूर्ति उसे सुना दीचिरं चित्तोद्याने वसति च मुखाजं पिबसि च, क्षणा देणा क्षीणां विषयविषमोहं हरसि च । नृप! त्वं मानादि दलयसि रसायां च कुतुकी, कुरङगः किं भृङगो मरकत मणिःकि किम शनिः॥ अर्थात् हे राजन् ! आप मृगनयनी सुन्दरियों के चित्त रूपी उद्यान में विचरते हैं, इसलिए आपके प्रति उद्यानचारी हरिण का संदेह होता है। आप उन्हीं सुन्दरियों के मुख-कमलों का रसास्वादन करते हैं, इसलिए आपके विषय में भ्रमर की आशंका होती है । आप कामिनियों की वियोग-विष से उत्पन्न मूर्छा को दूर करते हैं । अतः आप मरकतमणि जसे शोभित हैं। आप अभिमानियों के मान रूपी पर्वत को चूर-चूर कर देते हैं। अतः आपके विषय में वज्र की आशंका होने लगती है।
सुन्दर अभिप्राय और अलंकार प्रधान समस्या पूर्ति को सुनकर वह पण्डित अतिप्रसन्न हुआ और कहने लगा कि लोक में आपकी जैसी प्रसिद्धि हो रही है, वह पूर्णतः सत्य है। ___ इसी तरह गणदेव नामक भावक यह सुनकर जिनवल्लम के पास चित्तौड़ से आया कि उनके पास स्वर्ण सिद्धि है । जिनवल्लभ ने उसके
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