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________________ (सिरि भूवलय समंतभदाचार्य जी ने मंगल श्लोक में ही सिद्धरस स्तोत्र किए है। अर्हत्पदा भोजनमस्कारो सिद्धेर सालंकृत दीपीका द्यौ। नानर्थरत्नाकर सिंधुलोहरसेन्द्र जैनागमसूत्र बद्धं । परमात्म के विराट रूप और महागुण हमने नहीं देखा है। उसे देखने के लिए हम विद्युत दीप जैसे अनेक ज्योतियों को प्रकाशित करते है । पर क्यों ? वह अचेतन है। शाश्वत प्रकाश नहीं देता है । सूर्य का प्रकाश भी शाश्वत नहीं है । निशा में उसका भी प्रकाश हमारे लिए नहीं है। इस कारण परमात्मा को देखने के लिए कोई भी योग्य नहीं है। हमारे इष्टदेव इन किसी से भी नहीं मिलेंगें । अष्टकर्म से मुक्त होना है । रस मूर्छित हो तो रोग नाश होगा । रस मृग बन जाए तो (भस्म) धन, धान्य और ऐश्वैर्य प्राप्त होगा यह शुद्ध हो तो सिद्ध रस बनेगा । इस कारण आकाशगम नेत्यादि अजरामरत्व प्राप्त होगा यह हमारे समझ में नहीं आया होगा। पर कायाकल्प आदि से आयुष्य वृद्धि होगी इस विषय के जानकारी तो हमें है। वैसे ही नित्यजीवन, नित्य सुखः प्राप्त करने के लिए आयुर्वेद का साधन होना बहुत आवश्यक है । इसमें ऋग्वेद आदि सकलशास्त्र भी सामाहित होते है । इस विषय के तथ्य के लिए इसे ९२ पृथक अंकों को, शब्दराशि को इस ग्रंथ में आनेवाले आयुर्वेद भाग को दि।। श्री नाल्वडि कृष्ण राजवोडेयर ने श्रवणबेळगोळ के दूसरे महामस्तकाभिषेक के समय में, राजकुमारी अमृत कौर जी, श्री अजितकुमार शास्त्री और अनेकों ने सुनकर बरोडा आयुर्वेद परिशोधनालय में विमर्शन करने के लिए कहा। अखिल भारत आयुर्वेद कांग्रेस के विद्यापीठ के अध्यक्ष श्री रामगोपाल शर्मा जी ने दिल्ली के कनॉट सर्कल में श्री आशुतोष मुखर्जी के औषधालय में यह देखा तो इस सिरिभूवलय आयुर्वेद विभाग से प्रकाशन के लिए धन सहाय आदि सौकर्य प्राप्त कराने के लिए निर्णय कराया। वह जल्द कार्यगत हो तो सारे विश्व को अत्यावश्यक इस ग्रंथ के आयुर्वेद विभाग को प्रदान किया जा सकता है ११. डॉ.एस.के. करींखानजी ____ कुमुदेन्दु विरचित सिरिभूवलय एक महा काव्य ग्रंथ है। यह संसार के सभी भाषा लिपियों को समाहित कर, तीन सौ तिरसठ धर्मों के सार को,चौंसठ महा कलाओं को उस पर सातसौ अट्ठारह भाषाओं को विवरणारूप से अंकाक्षर माध्यम द्वारा दिया जाना
SR No.023254
Book TitleSiri Bhuvalay Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSwarna Jyoti
PublisherPustak Shakti Prakashan
Publication Year2007
Total Pages504
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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