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________________ सिरि भूवलय "" शास्त्र" ऐसे तीन स्तंभ बने हैं । प्रथमध्याय के अंत में चिदानंद घने कृष्णेनोक्ता स्वमुखतोवर्जनं। वेदत्रयि परानंद तत्वार्थ ऋषिमंडलं ।। कहा गया है । तत्वार्थाधिगम सूत्र और ऋषिमंडल गीता में अनुस्यूत ( मिलें ) हैं । द्वितीय अध्याय 'अथ व्यासमुनींद्रोपदि जयताख्यानांतर्गत गीता द्वितीयोध्यायः " ऐसे आरंभ होता है। यह अध्याय भी “ योष्टागा जपेन्नित्यं नरो निश्चलमानस ज्ञान्सिद्धिं सलभते ततो याति परां पदम" इस श्लोक से अंत होता है । तृतीय अध्याय भी " अथ वेदव्यासर्षिप्रणीत जयख्यानाद्यंतर श्रेढी ऋकमंत्रांतर्गत भगवद्गीता तृतीयोध्यायः " अथवा प्रतिलोम रूप में " अथ व्यास महर्षि प्रणीत जयख्यानांतर्गत भगवदगीता तृतीयोध्यायः " ऐसे प्रारंभ होता है । " तस्मादोमित्युदाहृत्य यज्ञदानतपःक्रियाः। प्रवक्तंते विधानोक्ता स्थततं ब्रह्मवादिनं” ऐसे अंत होता है । इतना ही नहीं इक्कतीसवें अध्याय में “पख्खेवगणीयसारं” ऐसे आठ श्लोक हैं। इस प्रकार ५४, ५४, ५४, कुल १६२ और ८ (१७०) श्लोक जयख्यान के भगवद गीता में हैं कहा गया है । इनमें से १३३ श्लोक आज की गीता में मिलते हैं । शेष ३७ श्लोकों में गीताप्रशंस, पठनफल, जिनसेन के महापुराण में कहे जिनसहस्र नाम दर्शनसार समयभूषण के जैनाभास शाखाओं के निंदारूप के श्लोक मिलते हैं। इन सभी को भगवद् गीता के मूल श्लोक नहीं कहा जा सकता है। इतना ही नहीं भगवद् गीता के श्लोकों में आनुपूर्वि दिखाई नहीं देता है। अलग-अलग विषयों को कहने वाले श्लोकों को प्रथमाक्षर स्तंभ बंध के लिए जोडे गए हैं ऐसा प्रतीत होता है । वहाँ भी गोपुच्छक के लिए शापुच्छक इत्यादि व्याकरण दुष्टवाद प्रयोग दिखाई पडतें हैं । भूवलय में किसी गीता प्रशस्ति के श्लोकों को नहीं मिलाया गया है। भूवलय की गीता यत्रतत्रानुपूर्वि में है ऐसा कहा गया है । पूर्वानुपूर्वि अथवा पश्चातानुपूर्वि में ही सही यही श्लोक रहेंगें । जयख्यान के गीता में मूलसंघ के भेद, देव, सेन, नंदि संघों का उल्लेख, शा(?) पुच्छक, श्वे (शी ?) तवास, द्राविड, यापनीयक, निःपिंछ, ऐसे पाँच जैन पंथों को आर्या (दा) भास कह कर संबोधित किया गया है, साधु उपाध्याय लक्षण, ऋषभसहस्रनामस्तोत्र आदि नहीं हो सकते हैं। ऐसे ही प्राकृत जयभगवद गीता संबोधित करने में निर्वाण गाथाएँ, त्रिलोक प्रज्ञप्ति श्लोक मिले हुए हैं। इसके यत्रतत्रानुपूर्व पूर्व वर्णन में सिरि कुमुदचंद मुणिणा णिम्मवियं यलवभू, मिमिणं, इस प्रकार कुमुद चंद्र का नाम भी उल्लेखित होता है। 465
SR No.023254
Book TitleSiri Bhuvalay Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSwarna Jyoti
PublisherPustak Shakti Prakashan
Publication Year2007
Total Pages504
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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