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________________ सिरि भूवलय भी महामहिम राजा जी की हाथी सवारी को जंबू सवारी कहा जाता है) में देखा जा सकता है। श्री कृष्ण के काल से चले आ रहे दिगबंर मुनि के अत्युत्तम चिन्ह यह ध्वज एक बार कर्नाटक चक्रवर्तित्व का चिन्ह भी बना था। इस प्रकार गुरु कुमुदेन्दु ने अपने अद्भुत ज्ञानोपदेश के द्वारा कन्नडिगाओं को गौतम महर्षि के समान ही महोन्नत दशा को प्राप्त कराया। दिव्य ध्वनि विश्व के समस्त अक्रमवर्ति व्यवहार-चलन-वलन परस्पर विरोधी होने पर भी अंतरंगदृष्टि से देखें तो सभी सक्रमवर्ति रूप से ही दृष्टिगोचर होते हैं ऐसा स्पष्ट होता है। हमारी दृष्टि को अक्रमवर्ति दिखाई देने वाले उस पदार्थ की सक्रमता को कुमुदेन्दु ने प्रप्रथम अपने दिव्यज्ञान से देख-जान लिया । इस प्रकार देखे गए को तद्नुसार लिख रखने के समय जग के समस्त वस्तुओं को पंचास्तिकाय, षड्द्रव्य, सप्ततत्व, तथा नवपदाथों में सभी को मिलाया जाए तो ३वर्ग अर्थात ३४३=९५३=२७४३=८१४३=२४३४३=७२९ इस प्रकार वर्गीकरण करते हुए संयोग भंग के गणित पद्धति का प्रयोग कर अंतरंग में समा कर देखा । तब संक्षिप्त करते समय वे सभी एक में एक और मिलने पर संग्रहनय के द्वारा एक जीव और दूसरा अजीव। इस प्रकार कन्नड का एक+एक(१+१) मिलाकर समस्त विश्व की वस्तुओं को एक शून्य में समाहित कर दिया । अर्थात पूरी दुनिया को अपने अंतरात्मा में देख लिया। उस को पुनः खंडित कर वर्गित-संवर्गित करते हुए ६१७ पृथक अंकों को तीन (३) बार कह वर्गित संवर्गित राशी बना कर, उस राशी के प्रत्येक विश्व के ज्ञान को जान कर गणित पद्धति से ही अनंत राशी को प्राप्त कर एक एक अणु को एकएक शब्द के अनुसार चौंसठ(६४) ध्वनि में विंगिड (बाँट)कर प्रत्येक एक-एक ध्वनि में अति अल्प भवग्रहण में देखा ।इन सभी को एक माप में समाहित कर तीन लोक तथा तीन काल के जीवाणु तथा पुदगलाणु (अति सूक्ष्म, जैन मत के पाँच अजीव तत्व में एक) का हिसाब कर ७१८ भाषाओं में ३६३ मतों में ६४ कलाओं में बाँट कर, उन सभी को पुनः नवमांक पद्धति में अर्थात अरहंत ही आदि बन जिन बिम्ब के पर्यंत नवदेवताओं में संस्थापित कर दिव्य ध्वनि का अष्टमहाप्रातिहार्य रूपों में कर्माटक-कर्माषटक अर्थात आठ(८) कर्मों को कहने वाले समस्त भाषाओं में बाहर लाए। अनेक जैनाचार्य दिव्य ध्वनि के विषय में विस्तृत रूप से व्याख्यान करने पर भी उसे सार्वजनिकों के द्वारा स्वीकृत करने के भाँति स्वीकृत कर सत्य मान कर भक्ति के स्तर पर तर्कबद्ध रूप से सिद्ध नहीं ===430
SR No.023254
Book TitleSiri Bhuvalay Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSwarna Jyoti
PublisherPustak Shakti Prakashan
Publication Year2007
Total Pages504
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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