SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 429
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सिरि भूवलय को केवल जैनों के लिए ही नहीं समस्त जीव राशी के लिए अथवा ३६३ ऐकांत मतों के लिए, छोड गए हैं । ऐसे लोग गिनती में अनेक होने पर भी वर्तमान में तीन कम नौ करोड हैं। आप भगवन की वाणि को कन्नड लिपि, अंक, रेखा, वर्ण, आदि साधनों को द्रव्य, क्षेत्र, तथा भाव आदि गणित शास्त्र से पता लगा कर अर्थात ६४ अक्षरों में अथवा उसी को शून्य में समाहित कर सुरक्षित रूप से रखा है। हुण्डावसर्पिणि नाम के कठिनतम काल दोष के कारण पवित्र जैन धर्म सीधे-सीधे जिनवाणि के संबंध को खो कर ज्ञान से वंचित हो, केवल दर्शन और इतिहास के द्वारा धर्म को रक्षित करते आए । फिर भी श्री गौतम आदि श्रुत केवलियों तक आए इस श्रुत ज्ञान को एक साथ गणित शास्त्र के अनुसार ६४ अक्षरों को घुमा कर तीनों काल तथा तीनों लोक के समस्त विषयों को, ९२ पृथक अंकों का घुमाते हुए आने के कारण से ही अंग तथा अंगबाह्य श्रुत को मिलाने वाले महात्मष्ट के उस मिलाकर रखे गए क्रम को सुलझाने और सुलझा खोल कर समझने के मर्म को नहीं लिख रखा अथवा लिख के नहीं रखा जा सका अथवा उन्होंने स्पष्ट रूप से लिख भी होगा तो हम समझ नहीं सके। इस कारण से कालक्रमेण में विद्वानों के द्वारा अक्रमवर्ति भगवद् वाणि को क्रमवर्ति मानने जैसे शोचनीय स्थिति आ गई । महा तपस्या के फल के कारण, शुद्ध चरित्र के फल स्वरूप, आत्म साक्षात्कार प्राप्त पाँच सम्यग ज्ञान सिद्धि प्राप्त उन सभी आचार्यों ने शोचनीय स्थिति में रहे जैनों के लिए केवलशास्त्र के, केवल ऐकदेश को अलग-अलग भाषाओं में, अलग-अलग लिख रखा। इस कारण से मूल विषय, दिव्य ध्वनि का मूल कथन विस्मरित हो गया । इसे झूठ मानने के लिए जनता भी तैयार हो गई । बडे-बडे वैदिक संप्रदाय के महात्मा (श्री भट्टपादाचार्य ही) आदि ने इस कथन का खंडन ही किया । इस खंडन पर महातपस्वी दिगबंर मुनि श्री अकलंकचार्यजी के प्रतिखंडन को अनुमानादि परोक्ष तथा अपरोक्ष प्रमाणों से भी सिद्ध नहीं किया जा सका। इन्हीं कारणों से दिव्य ध्वनि अनादर की पात्र हुई। ___ एक बार यदि जैन गुरुओं ने विरोध किया तो, इस क्रिया से गुरुजी मेरे ऊपर नाराज हुए हैं ऐसा मान कर श्री भट्टपादाचार्य जी ने एक गड्ढे में गर्दन तक भूसा भरवा कर केवल सिर बाहर रख आग जला ली तब श्री शंकराचार्य जी ने उन्हें रोका। फिर भी उन्होंने अपने प्रायश्चित विधि को नहीं छोड़ा। इस बात से दिव्य ध्वनि को न मानने वाले यदि उन्होंने सिरि भूवलय को देखा होता तो उसी दिन से जैन तथा वैदिक मतों के प्रेम वृद्धि के हेतु प्रयत्न करते तुषाग्नि (भूसे के ढेर में आग लगा कर जल जाने का प्रायश्चित) से प्राण त्याग नहीं करते । लोक में सार्वत्रिक तथा सार्वकालिक स्वरूप से एक समय में =426
SR No.023254
Book TitleSiri Bhuvalay Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSwarna Jyoti
PublisherPustak Shakti Prakashan
Publication Year2007
Total Pages504
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy