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________________ सिरि भूवलय || परमात्मनादि ऋग्धवल्दोळुसुरिद । अरहंत भाष गुरु गौतमरिन्दा ग्रंथस्थवागिर्प । परियनु श्रुतकेवलि ॥ मनद पर्यायादि गणित सम्यकज्ञान । दनुभवकंठस्थवागि ॥ जिनवाणिसंयोग प्रवहिसि तंदित्त । कोनेय भवाग्र भूवलय इस “मंगल प्राभृत" को समाप्त करते हुए अंत में एक अध्याय को ही मंगलाशीष के रूप में कहते हैं । उस के एक दो पद्यों को उदाहरण के रूप में देकर इस लेख को समाप्त करता हूँ । मेरुव बलकिं तिरुगुत नेलेसिर्प । सारद बेळक बीरुव चंद्र नीलांबरदोळु होळेयुवा नक्षत्र । मालिन्यवागदवरेगे ॥ शीलव्रतंगळोळु बाळ्दु जनरेल्ल । कालन जयिसलेनीसलि ॥ ११. प्रजावाणी २१-६-१९६४ कलमंगलं श्री कंठय्या नवमांक गणित अंकाक्षर विज्ञान इस प्रकार गणित के प्रथम संख्याओं के वर्गपूर्ण रूप ६४ अक्षरों को आदि जिन ने ब्राह्मी को, शून्य के साथ उस से उत्पन्न होने वाले ९ अंकों को सौन्दरी को दान में दिया। इस अंकाक्षर संयोग पद्धति के गणित क्रम से संसार के सकल काल के समस्त भाषा शब्द, समस्त भाषा साहित्य, प्रकट होंगे ऐसा कवि कहते हैं । इस कथन को जिनसेन मुनि अपने आदि पुराण संग्रह में भी सूचित करते हैं । भूरि वैभवयुतराद ॥ सूर्यरु । धारूणियोळ तोर्प वरे ॥ गणितांक के प्रथम २ को गणित संख्याओं के एक और वर्ग ६४ बार सामान्य रीति से गुणा करे तो २० पृथक अंक मिलते हैं । वे इस प्रकार से मिलते हैं 2 x 2 = 4 x 2 - 8 x 2 = 16 x 2 32 x 2 = 386 64 इस प्रकार ६४ बार गुणा करे तो आने वाले कुल २० पृथक अंक इस प्रकार हैं
SR No.023254
Book TitleSiri Bhuvalay Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSwarna Jyoti
PublisherPustak Shakti Prakashan
Publication Year2007
Total Pages504
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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