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________________ सिरि भूवलय महाराष्ट्र, संस्कृत, मागधि, अपभ्रंश, तेलगु, तमिल, रूप में है। प्रकटित सभी भाषाएँ उन भाषाओं के पुरातन छंद में ही है । सिरि भूवलय मे कुल ७१८ भाषाएँ हैं जिनमें १८ बडी भाषा और ७०० अन्य भाषाएँ हैं, ऐसा कुमुदेन्द जानकारी देते हैं। कवि का व्यक्तित्व ___सभी उत्सर्पिणि और अपसर्पिणि समय में भी २४ जिनतीर्थंकर होंगें, अभी हुण्डावसर्पिणि काल होने के कारण इस काल में श्रीकृष्ण के साथ स्वयं कुमुदेन्द को भी मिलाकर २६ जिन हैं, कुमुदेन्द स्वयं को भी तीर्थंकर मानते हुए इस प्रकार कहते हैं - अ, सि, आ, उ, सा मंत्र दोरेत सिंहद जन्म। दिसेयों सम्यक्त्वं सेरि। रिसिवीर सिद्धत्वडते श्री कृष्ण । रिसि कुमदेन्दुवंतिमरु।। रिसिगळिप्पत्तुनाल्कु अपसर्पिणियोळगागे विषमांक हुट्टिद हुण्डा । वसर्पिणि कालदोषदोळु श्री कृष्णन । दिसे यंते कुमदेन्दु गुरुवु।। इदुवे हुण्डावसर्पिणिय महत्यवु। अदरिन्दा इप्पत्तारंक ॥ एदिरिगे बंदितल्लदे अवसर्पिणि । योळगेल्लवु इप्पनाल्के। (उपरोक्त गद्य ही इस · श्लोक का अर्थ है)। इस कथन के अनुकूल ही कमदेन्द ने भी सकल तीर्थंकरोपदेश के अनुसार सर्वभाषामयी बनाकर सर्वधर्मसमन्व बनाकर अपने ग्रंथ को रचा है। धार्मिक दृष्टि ___कवि को सहन शक्ति ही अत्युच्चधर्म है। दुनिया के सभी मतों को आदर से देखना है, यह मत सभी समय में ३६३ हैं इन्हें बिना किसी भेदभाव के एक साथ मिलाकर जीना है कहते हुए ऐसा कहते हैं महावीरदेवन वाणीयिं बंदिह। महिमेय भद्रसाकल्य श्री। सहनेय धर्म निराकुलवेन्नुव । महिमेयंकाक्षर वाणि।। कर्माटका मातिनिंदलि बळसिह। धर्म मूनूररवत्मूरं निर्मलवेन्नुत बळिय सेरिप काव्य। निर्मल साद्वादकाव्य। 384
SR No.023254
Book TitleSiri Bhuvalay Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSwarna Jyoti
PublisherPustak Shakti Prakashan
Publication Year2007
Total Pages504
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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