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________________ =(सिरि भूवलय - रसवु मूलिकेगळ सारव पीवंते। होस काटकभाषे । रसश्रीनवमांकवेल्लरोळु बेरेयुत। होसेदु बंदिह ओंदंक। हदिनेन्टु भाषेयु महाभाषेयागलु। बदिय भाषेगळे न्ळोरं हृदयदोळडगिसि कर्माटलिपियागि। हुदुगिसिदंक भूवलय।। छंद यह ग्रंथ अपने आप में अनेक भाषाओं को समाहित किए हए भी अनेक विध से भाषा चित्रों को बंध चित्रों को प्रकट करते हुए भी रचना के लिए आधार रूप से प्रयोग किए गए मुख्य छंद प्रकार, कन्नड़ भाषा की मध्य कन्नड समय का साहित्य कृतियों के लिए प्रयोग किए गए बहु परिचित “सांगत्य” नाम का शुध्द कन्नड छंद है। इस विषय को ग्रंथ कर्ता ही अपने ग्रंथ के अलग-अलग स्थानों पर प्रासंगिक रूप से सूचित करते हैं उदाहरण के लिए “ इतिहास के सांगत्य रागदोळडगिसि परितंद विषय (६-१९२)”, इतिहास का सांगत्यवेने मुनि नाथर । गुरु परंपरा विरचित (९-१९६), "उसहसेनरु तोरुवुदु असमान सांगत्यहुदु (९,२२१-२२), वशवाग देल्ली कालदोळगेम्बा। असदृश्य ज्ञानद सांगत्य(१०-७०) आदि ऐसे उल्लेखों को देखा जा सकता है। “चरितेयोळु बरेदिह सरस्वतीयम्मनापरियन रितुसाकल्य” (११-८४) कहने में भी चरिते शब्द सांगत्य छंद को ही परोक्ष रूप से सूचित करता है।ग्रंथ को ही आधार मान कर पद्यों का विस्तार किया जाए तो यह विषय अपने आप और भी स्पष्ट होता है। इतना ही नहीं रत्नाकर वर्णी मंग रस आदि के काव्यों में दिखाई देने वाले वैसे ही लक्षण भी दिखाई देते हैं। यह पर्याय गण लक्षण सहित स्निग्ध रीति का भी जान पडता है। ग्रंथ में सांगत्य शब्द का प्रयोग होना एक प्रकार से उसकी रचना में १५वीं सदी के उत्तरार्की अनंतर में हुई होगी ऐसा सूचित करता है। इसके लिए ग्रंथ के भाषा रूप पोषक साक्ष्य रूप में प्राप्त होंगे ऐसा कहना विदित है। इतना ही नहीं ग्रंथ पद-पध्दति कहाँ है यह आशय भी( १७-६) देशीय छंद में वह भी रचित हुआ होगा रचित करता हुआ है। अब सांगत्य पदपुजों के बीच-बीच में कुछ अध्यायों तक प्रासबध्द रूप से आने वाले “रगळे" (एक प्रकार का छंद) की पंक्तियों क स्वरूप और भी स्पष्ट 124
SR No.023254
Book TitleSiri Bhuvalay Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSwarna Jyoti
PublisherPustak Shakti Prakashan
Publication Year2007
Total Pages504
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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